कहते हैं, प्यार करने की कोई उम्र नहीं होती *। पता नहीं । नहीं होती होगी, पर मौसम ज़रूर होता है - जैसे आम का होता है । उस मौसम में आम का रूप रंग ही कुछ और होता है। प्यार के मौसम में प्यार का भी स्वाद अलग होता है। और बवाल का भी। आए दिन लोगों को इस बात पर बहस करते देखा है कि कौन से किस्म का आम सबसे अच्छा। अजी लोग बुरा मान जाते हैं।मुझको क्या - मुझे आम से सरोकार है, लोगों का क्या ही करना है इसमें | मैं आम दबा कर पतली गली से निकलने की कोशिश भले ही करता होऊं, लेकिन, जाते जाते कुछ न कुछ कान में पड़ ही जाता है।

एक अरसे से मेरे मुंह में कुछ फंदे लगे हुए हैं । फंदे क्या हैं जी, जेल हैं । दसेरी आम को चूस कर खाने का सुख नहीं मिला। जब कभी कोशिश की भी, तो यह बंधन मुंह में पड़े पड़े मुझको रोकते ही रह गए। और सिर्फ दसेरी आम ही क्यों, सफेदा, लंगड़ा, सब आम कहां अब वैसा लुत्फ दे पा रहे?

कुछ लोग कहेंगे कि अरे! यह क्या बात हुई? काट कर खा लो, ऐसे क्यों तिल का ताड़ करते हो? भई मैंने काट कर भी खा लिया, और दूध में घोल कर शेक बना बना कर पी भी लिया, दही में जमा कर मैंगो- योघुर्ट बना कर भी खा लिया। किसी किस्म की तहजीब के चलते आम को कटोरी समझ कर चम्मच से आम खुरेंच कर भी खा लिया। सब सही है। बस वह नहीं है जो होता है।

वही, जो सफेदे आम को टुकड़ों में काटकर, हाथों में स्लाइस उठा कर, मुंह से लगा कर, दांतों और जीभ से कुतरने में है। दबाव बस इतना कि आम आ जाए, लेकिन छिलका न कटे। या फिर वो, जो एक दसेरि आम को हलके हलके अंगुलियों से गूंथ कर उसके पल्प को तरल कर के, और फिर हाथों, दांतों, जीभ और होंठों के तालमेल से उसे चूस कर खाना - और फिर आम की गुठली को दांतों से साफ करना । आम के आम, गुठलियों के दाम - सुना होगा ना आपने? जब तक अपने हाथों से खाए हुए आम को, और ऐसा करते हुए हाथों पर टपके हुए रस को, या चेहरे पर फ़ैल गए पल्प को जीभ से चाट कर ना साफ किया हो, आपने क्या आम खाया भी है? कितना भी शिष्टाचार जता लीजिए जनाब, लेकिन जो मजा अंगुलियों से चखे हुए आम में, होंठों से महसूस किए हुए उसके स्पर्श में, और हलके दांतों के दबाव से नोचे हुए आम के आखिरी एहसासों में है, वह किसी चम्मच से खाए हुए पल्प में कहां है?

फिर लोग कहेंगे कि भई अब तो हर मौसम में आम मिल जाता है, क्यूं मौसम कि दुहाई देते हो? मिल जाता है, लेकिन जो हर वक़्त मिल रहा हो, उसकी न उतनी कद्र रहती, और ना ही एहसास। हर मौसम अगर एक सा हो, तो बोरियत हो जाती है। फिर इंतज़ार किसका करें भला बताओ? बेसब्री है, इंतज़ार है, आओ तो तुम्हे चख लें। लेकिन हर चीज का एक वक़्त होता है जब उसका मूल्य पैसे में नहीं मापा जा सकता । ऑफ सीज़न होने से उसका दाम तो बढ़ जाएगा, लेकिन वो बात नहीं रह जाएगी ।

हम समझते हैं आज़माने को
उज़्र कुछ चाहिए सताने को
~मोमिन
(उज़्र - बहाना)

यदि आम खाने के विवरण से आपमें आम खाने की कसक जग गयी हो, तो बुरा नहीं है। यदि आपको कोई प्रेमी याद आया हो, या अंतरंगता की टसक भर भी हो आई हो, तो वो भी सही है। बस इतना कहना है, कि आम का एक सीज़न होता है - और प्यार का भी। उसका भोग करने के लिए माहौल बनाना पड़ता है - हाथ से आम दबाना पड़ता है, दांतों से और जीभ से काटना पड़ता है, होंठ लगा कर चूसना पड़ता है, किसी बाह्य औजार की कोई ख़ास ज़रुरत नहीं होती। ऐसे ही आम नहीं खाया जाता - ऐसे ही हमारे यहां आम को फलों का राजा नहीं कहते । चम्मच में भर के, साफ सुथरे ढंग से आम नहीं चखा जाता - और ना ही प्यार ।

वो काम भला क्या काम हुआ
जो लब की मुस्कां खोता हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो सबकी सुन के होता हो…
~पीयूष मिश्रा

खैर, मेरे मुंह में तो बेड़ियां पड़ी हैं अभी । देखते ही देखते आम का एक और मौसम यों ही खर्च हुआ।

*बालिग होने के बाद :P

Aesthetic Blasphemy | A child eating a cut mango
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