विकलांग श्रध्दा का दौर

ISBN: 978-81-267-0319-7


राजकमल प्रकाशन


हिंदी में व्यंग्य साहित्य लिखने वाले बिरले ही हुए होंगे, हरिशंकर परसाई जी ऐसे लेखकों के लिए मिसाल हैं, और केवल मिसाल ही नहीं, शाश्वत व्यंग्य लिखने वाले एक ऐसे स्तम्भ हैं जो निरंतर ही प्रेरणा का स्तोत्र हो । हरिशंकर परसाई को अपनी इस लघु कथा संग्रह, ‘विकलांग श्रध्दा का दौर’ के लिए साहित्य अकादमी से पुरस्कार मिला ।


यदि व्यंग्य समझ आये तो इन लघु कथाओं में चोट बहुत सटीक है । न आये, तो भी ये रोज़मर्रा की बेहद मनोरंजक कहानियां है, जो हरिशंकर जी के आस पास के समाज पर प्रकाश डालती है । गौर से देखेंगे तो भारत का समाज विगत 30 सालों में कुछ ख़ास नहीं बदला है । इसलिए, यह कहना भी अनुचित न होगा कि हरिशंकर जी का व्यंग्य आज भी नवीन है, समकालीन है ।

उल्लेखनीय है इस पुस्तक की जिल्त पर छपा हरिशंकर परसाई का ही एक लेखकीय वक्तव्य – “'व्यंग्य' अब 'शूद्र' से 'क्षत्रिय' मान लिया गया है। विचारणीय है कि वह शूद्र् से क्षत्रिय हुआ है, ब्राह्मण नहीं, क्योंकि ब्राह्मण 'कीर्तन' करता है। निस्संदेह व्यंग्य कीर्तन करना नहीं जानता, पर कीर्तन को और कीर्तन करने वालों को खूब पहचानता है । कैसे-कैसे अवसर, कैसे कैसे वाद्य और कैसी-कैसी तानें-जरा-सा ध्यान देंगे तो अचीन्हा नहीं रहेगा विकलांग श्रध्दा का (यह) दौर।“

इस संग्रह में लिखीं कहानियों को पढने से पहले, यह जान लेना अनिवार्य होगा कि इनमें से अधिकांश कहानियों का सन्दर्भ क्या है। यह जानना और भी आवश्यक है क्योंकि लेखक ने आप ही कैफियत में यह बताना ज़रूरी समझा है। 1975 के आपातकाल का प्रभाव, जिसने इंदिरा गाँधी को देश की दुश्मन जैसा बना दिया, 1977 के आम चुनाव जिसमे कांग्रेस की करारी हार हुई और नयी सरकार ने इसे 'दूसरी आज़ादी' नाम दे कर बिगुल बजाया, परसाई जी की टांग का टूटना, और राजनेताओं की राजनीति के चलते हर संस्थान के ऊपर से विशवास उठना इस कहानी+ संग्रह की कुछ अहम् कथाओं के प्रेरक हैं। समाज के दोगुलेपन और जन सामान्य की बात बहुत ही अचूक ढंग से सुनाई गयी हैं।

कांग्रेस से ही पनपे लोग, जिनमे से की कुछ ने 20 सालों तक शासन भी किया, अचानक कांग्रेस छोड़ एक सामाजिक पार्टी बना लेते हैं, जो ‘भारतीय जनता पार्टी’ बन कर सत्ता संभालती है, मोरारजी देसाई के नेतृत्व में। फलतः न भ्रष्टाचार कम होता है, न गरीबी, न महंगाई की समस्या, न ही कुछ और। सामाजिक व्यवस्था भी जटिल की जटिल ही रहती है। इस असफलता पर परसाई जी का तीखा व्यंग्य पढ़ने को मिला | 'देशवासियों के नाम सन्देश' में राजनीतिज्ञों के दोगुलेपन पर व्यंग्य कसते हुए परसाई जी अपनी टूटी हुई टांग के महत्व को राष्ट्रीय स्तर पर लाते हैं, फिर कभी उस टूटी टांग को साहित्य की टूटी टांग बताते हैं, तो कभी भ्रष्टाचारी राजनीतिज्ञों का षड़यंत्र। अपनी टूटी टांग पर बहुत ममता बिखेरते हैं।

मध्यमवर्गीय लोगों के ओछेपन और पैसे के आ जाने से होने वाले फूहड़पन को वे मवाद से तुलना करते हैं, वह मवाद जो फोड़ा पाक जाने पर उस में से निकलता है। 'एक मध्यमवर्गीय कुत्ता' में इसका खूब परिचय मिलता है, और अपने पिता की मृत्यु को ‘मरना’, और सेठ की मृत्यु को 'स्वर्गवासी' होना कह कर एक बार फिर वह लोगों में बढ़ते आडम्बर रुपी सर्प पर व्यंग्य कसते हैं।

अपने आप को मज़ाक का पात्र बना कर वे साहित्यकारों पर भी खूब कहते हैं। इमानदार लोगों की जमात से भी पाठकों की खूब पहचान होती है। शाश्वत लिखने की प्रेरणा देने वाले लेखकों पर परसाई जी त्याग का पाठ देते हुए कहते हैं:



और इन शरीफ लोगों का तो क्या ही कहना, बड़ी ही मधुर उद्दंडता से उन्होंने इनके नकाब को नोचा है। 'यह शरीफों का मोहल्ला है', इस बात के ऐसे ऐसे माएने उन्होंने दिखाए हैं कि आत्म खुश हो जाए। अब तो यह सोचता हूँ कि शरीफ होता कौन है? आचार व्यवहार से तो कोई भी शरीफ हो सकता है, पर विचारों से? ऐसा लगता है कि सबसे गुंडई की बू आती हो।

कहानियाँ सरल और छोटी हैं, हमारे आधुनिक युग में वे बहुत अच्छी ब्लॉग पोस्ट्स कहलातीं और परसाई जी एक ब्लॉगर। लेखन को ही जीविकोपार्जन का साधन बना कर उन्होंने कभी भी ज्यादा पैसा नहीं कमाया, ब्लॉग भी लिख लेते तो परिस्थितियाँ ज्यादा न बदलती। हाँ यह ज़रूर हो सकता है कि उन्हें बहुत पढ़ते, पर असल में कोई न पढ़ पाता। व्यंग्य है ही ऐसी निपुण कला, चोट लगी या नहीं, कहना मुश्किल है।

कुछेक साथी साहित्यकारों पर, जो कम्युनिस्ट की तरह लिखते, जैसे एक कवयित्री जिन्होंने लिखा था की वे कुत्ते के साथ सम्भोग करना चाहती हैं, और एक लेखक जिन्होंने अपनी स्त्री के मासिक साइकिल को चाटने की कल्पना लिखी थीं, जब इन लोगों से मिले तो कैसी भावनाएं मन में आती होंगी- ऐसे 'नवीन' 'क्रांतिकारी' साहित्यकारों की भी उन्होंने खूब खिल्ली उड़ाई है।



एकाएक इमानदारी कायम हो जाने से उत्पन्न होने वाली समस्या को भी उन्होंने भरपूर दिखाया है। 'एक अपील का जादू' में अचानक सब व्यापारियों के रातों रात इमानदार हो जाने से रोज़मर्रा की ज़िन्दगी पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को बड़ी निपुणता से दिखाया है। 'तीसरी आजादी का जांच कमीशन-1' में वे अपने आपको स्पष्ट करते हैं - "मुझे यह शिकायत नहीं है। मैं परेशान हूँ अपने आसपास की ईमानदारी से, ईमानदारी के देशव्यापी वातावरण से। यह मौसम मेरे स्वास्थ्य को रास नहीं आता। आखिर 'दूसरी आजादी' के हमारे भाग्य-विधाता इतने ईमानदार होकर हमें क्यों तंग कर रहे हैं। हमने क्या बिगाड़ा है। इन्होने हमें समझा दिया है और हम मान गए हैं कि तीस साल तक हमारे रहनुमा बेईमान और स्वार्थी थे। अब ये नए भाग्य-विधाता बिलकुल ईमानदार हैं। अखबार पढता हूँ तो इनकी ईमानदारी के बयान और काम पढता हूँ। वही रेडियो पर। कहाँ भाग जाऊं मैं इस जालिम ईमानदारी से बचकर। कोई सूरत नज़र नहीं आती। मैं हाथ जोड़कर कहता हूँ, हे भाग्य-विधाता, हमसे बर्दास्त नहीं होता। हमारी क्षमता भी तो देखो। हम इतनी इमानदारी पचा भी पाएँगे? रोगी को देखकर पथ्य दिया जाता है। हम तीस सालों से उपवास कर रहे थे और तुम हमारा उपवास तुडवा रहे हो पकौड़ों से। लंघन तुड़वाते हैं तो पहले मूंग की दाल का पानी देते हैं। तुम भी हमें धीरे-धीरे ईमानदारी दो। लो, यह ईमानदारी का पानी पियो। अच्छा, अब यह इमानदारी की पतली खिचड़ी खाई। पच गई? ठीक। अच्छा, अब यह इमानदारी छोंकी हुई खाओ। थोडा चूरन भी ले लो। अच्छा, अब यह ईमानदारी का भरवाँ बैंगन खाओ। ऐसे धीरे-धीरे करना था। तुम तो मोतियाबिंद के आपरेशन के बाद एकदम तेज़ रोशनी आँखों पर डालते हो। हमें बर्दाश्त हो सके, इतनी ईमानदारी चाहिए। तुम बाद में जी भरकर ईमानदार हो लेना। जो ईमानदार होने पर आमादा हो, उसे कौन रोक सकता है।"

इमानदारी और पवित्रता को भीरु बता कर ऐसे दब्बू लोगों को भी उन्हिने खूब फटकारा है। इक्वलिटी (equality) का दंभ करने वालों को मैं यह पढ़ना चाहता हूँ:



यदि उनको पढ़ते हुए विरोधाभास सा लगे, क्योंकि हम भी इन्ही किसी एक श्रेणी में आते हैं, तो कदाचित शर्मसार न हों, बल्कि जीवन का सुधार करें। और यदि आपको यह पुस्तक समीक्षा पसंद आई हो, तो दो काम ज़रूर करें - एक तो यह कि मुझे बताएं, क्योंकि आखिर लेखक चाहता ही क्या है? एक सभ्य बातचीत और थोड़ी सी हौंसलाफ्स्जाही (और बहुत सारा यश, जिससे बहुत सारी आमदनी हो)? अगर रामराज्य आ जाए तो लेखक लिखेंगे ही क्या? दूसरी बात यह, कि इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें | अगर अभी मूड बना लिया है, तो आप किताब के चित्र पर अथवा - यहाँ पर - क्लिक कर के अमेज़न से पुस्तक खरीद सकते हैं (इस से शायद मेरा भी कुछ वित्तीय उत्थान होगा) |

अगर नहीं, तो पास वाले किताब के भण्डार तो हैं ही, वही जिंदाबाद !