एक मित्र है मेरा – पगला कह लीजिये उसे | और एक लड़की भी है | मेरे मित्र को वह बेहद पसंद थी (है) | पहली नज़र का प्यार था, या शायद जांचा परखा फैसला | कुछ चेहरे पहली ही दफ़ा आँखों से ज़हन में कुछ ऐसे उतर जाते हैं कि बस, वही हों, बाकी सब नहीं | बात को समय के परिपेक्ष में बाँध कर मैं इस घटना को काल चक्र के अधीन, और किन्हीं दो व्यक्तिओं में नहीं बांधना चाहता - पर इस पूरे क्रम में उस लड़की के रूप का विकास एक बेहद महत्त्वपूर्ण उत्प्रेरक है |
मेरे मित्र को वह लड़की उस समय से पसंद थी जब बाकी सब लड़के उस लड़की के लड़के जैसे रूप का उपहास करते | जब कभी भी ज़िक्र आता, कुछ लड़के ‘वो फ्लैटरौन’ कहने की गुस्ताखी भी कर बैठते | उसके ‘बॉय कट’ और बड़ी फ्रेम वाले चश्मे को देखते, और एक दुसरे को कोहनी मार कर आपस में मखौल करते | उसके ‘बॉय कट’ और मोटे फ्रेम वाले चश्मे के पीछे छिपी लड़की को सिर्फ एक लड़का भांप पाया था – मेरा मित्र, वह पगला |
कॉलेज में एक रीत सी बन गयी थी | कुछ लड़कियां पहले से ही गज़ब की हूर होतीं, उनको अधिकतर सीनियर लोग रिझा लेते थे | कुछ होती जिनमे गजब की ठाठ होती, घमंड होता, उनका सब उपहास करते, सिवाय कुछ ‘डेस्पेरेट’ लड़कों के (यह बात गौर करने लायक है की सभी लोग खूबसूरत होते हैं, बस कुछेक की सुन्दरता के आगे हम अपने मूल्यांकन की मोहर लगा कर अपनी ही नजर में सुन्दरता को धूमिल कर देते हैं) | पर कॉलेज के चार साल में कुछ ‘अन्य’ लड़कियों का कुछ ऐसा विकास होता कि अंतिम सेमेस्टर में कोई देख कर विश्वास न करता कि ‘पार्वती बाला छात्रावास’ की मैस का खाना ऐसी भी कायापलट कर सकता है, कि जहां भी जाएँ, सब पलट पलट कर देखें | पर ये सच था | उस लड़की की भी कुछ ऐसी कायापलट हुई थी |
मित्र ने तो उसे दूसरे साल में ही संकेत देने शुरू कर दिए थे, कि उसे वह पसंद है | पर जितना मनचला वह है, उतना ही लापरवाह भी है | या शायद, अन्य लड़कों के मुंह से अपने नूर का मजाक न बने, बेपरवाही का चोगा उसने स्वतः ही ओढ़ लिया था – ताकि सब उसको पागल ही समझें | उसकी जन्नत उसके अन्दर बसती थी, और उस लड़की में |
शायद पगले के आग्रह पर ही, या शायद किसी और ने कहा होगा (क्योंकि उसके कहे की तो कोई कद्र दिखती न थी), उस लड़की ने बाल बढ़ाये | रूप निखरने लगा | वक्ष भरने लगे और साथ ही में अन्य लड़कों की नज़रें भी अब रुकने लगीं | मेरा मित्र वहीँ का वहीँ था – गुनगुनाता हुआ “दुनिया कि इस भीड़ में, सबसे पीछे हम खड़े” | यह सच था, वह सबसे पीछे ही खड़ा था, वहीँ का हो कर रह गया |
उस लड़की को बताया भी था उसने, कि उसके मन में क्या है | लड़की ने भी दो टूक शब्दों में बात साफ़ कर दी थी, कि उसके दिल में कुछ नहीं है, और होने कि आस भी न रखी जाए | जवाब में पगले ने कहा था, तुम्हारे दिल की तुम जानो, मेरी दिल का हाल तुम्हे बता दिया | तुम्हारी सच्चाई तुमने बता दी, मेरी मैंने, कम से कम इतना रंज तो न होगा कि कोशिश नहीं की | ग़ालिब की सी ढीठाई उसने ग़ालिब और फैज़ को पढ़-पढ़ कर ही सीखी थी |
कितने शीरीं है तेरे लब, कि रकीब
गलियाँ ख़ाके बेमजा न हुआ।
(कितने रसपूर्ण है तेरे होंठ, कि गालियां खाकर भी रक़ीब को मजा ही आया। तू गालियां दे रही थी, और वह होंठों को देखता ही रहा।)
पर हिंदी फिल्में देख-देख कर उस पगले को लगता था कि कविताएँ, कहानियाँ, और सच्चा प्रेम पत्थर तक पिघला सकता है | कहानियाँ लिखीं, और नदियों में बहाई हुई कागज़ की कश्तियों की तरह दुआओं में लपेट कर छोड़ दीं | जानता था कि उस तक न पहुंचेंगी, पर सोचता के कहीं से पहुँच ही जाएँ और कहीं प्यार का अंकुर पनप उठे | हमसे कहता के ये वो सपने हैं जो वह देखता था, और शायद जानता था कि पूरे न होंगे, पर सोचने पर किसका जोर है :
न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता
हुआ जब ग़म से यूं बेहिस (स्तब्ध) तो ग़म क्या सर के कटने का?
न होता गर जुदा तन से तो जानूं (घुटने) पर धरा होता
हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर इस बात पर कहना, कि यों होता तो क्या होता?
उस तक कहानियाँ पहुंची भी, और उसने कहलवा भेजा की बंद करो मुझको त्रास करना | वह दिन था और आज, जनाब ने उसकी परछाई तक को स्याही से कोसों दूर रखा है |
अब उस लड़की की ‘अरेंज्ड’ शादी होने को है, और मैं यही सोच-सोच कर रंज करता हूँ, कि जब प्यार करने वाला मिला तब उसे ठुकरा दिया, और अब एक अनजान के साथ ब्याह रचाने चली है | कैसे लोग हैं | हीरे की परख एक सच्चे जौहरी को ही होती है | अनघड़ आँख के लिए तो क्या हीरा और क्या कांच | ऐसे लोग बिरले ही मिलेंगे जो कीचड़ में लिपटे अनघड, बिना तराशे हुए हीरे की परख रखते हों | पर फिर इस बात की भी बार बार पुष्टि होती दिखती है कि “गुड बॉयज एंड अप बींग लास्ट” | परोसा हुआ प्यार कहाँ मिलता है इस जहां में? पर जो परख जौहारी को हीरे की है, वैसी ही परख हीरे को जौहारी की भी हो, ये ज़रूरी तो नहीं? दिल किसी का टूटा, दर्द कहाँ कहाँ हुआ |
थी खबर गर्म कि ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्ज़े
देखने हम भी गये थे, पै तमाशा न हुआ।
बाग़ मैं मुझको न ले जा, वरना मेरे हाल पर
हर गुले-तर एक चश्मे-खूंफिशां हो जायेगा।
(हर फूल खून के आंसू बरसाती हुई आँख हो जायेगा)
किसका मजाक बनाऊं अब भला, बताओ ? फिर अभी ऐसी ही एक और कहानी अपने सामने बनते देख रहा हूँ, और जा कर उस लड़की से कहने का मन हो आता है | शायद कह भी दूंगा उसे कभी, जब थोड़ी बदहवासी सी होगी, और घुटन सी, होश में तो मेरे पैरों में भी व्यावहारिकता बेड़ियाँ डालती हैं, एक अपनी बदनामी कि (जो बिन पैसे वकालत से मुफ्त में मुझको मिल जायेगी), और दूसरी ग़लतफहमी कि | पर आप ही बताओ, आखिर कितने दिल टूटते हुए देखूंगा अब मैं? अब बस भी करो !
यह जो शायरों की पंक्तियाँ मैंने चुरायी हैं, वह किसी जमाने में उसी ने मुझको सुनाई थीं - अपनी मिसाल छोड़ गयीं मेरे दिल पर, आज उनका वही निशाँ उनकी सिफारिश दे रहा है