सुबह की ही तो बात है, रूई की रजाई आसमान में सूखने के लिए बिछी हुई थी। हवा मद्धम थी, शीतल थी, और पास के किसी मकान में कोई गिटार पर हौले हौले धुन पिरो रहा था।
शायद कोई नौसीखिया होगा जिसे हम्म-हम्म के अलावा कुछ और नहीं आता, या फिर कोई पहुंचा हुआ होगा जिसे सिर्फ़ साज़ की ही नहीं, वक़्त और वातावरण की भी परख हो।
वर्क-फ्रॉम-होम का एक सुख तो यह है - चाय/कॉफी के वक़्त हवा खाने बालकनी में आना, कुछ पल रेलिंग पर कोहनियां सटाना और हवा से दुनिया का समाचार सुनना।
ख़ैर, बात यों हुई कि शाम को कोई पांच मिनट की बारिश आयी, और मौसम को और खुशगवार कर गई। धूप भी थी और बारिश भी। कहीं इंद्रधुंश भी बना होगा। लगा, जैसे सूरज की ज़रा सी झपकी लग गई हो, और उतने में कुछ चंचल बादल पानी उड़ेल आए। सूरज यकायक चौंक कर जागा, "अरे, अरे, अरे! कहां बीच अप्रैल में उद्धम मचा रहे हो!" और उन बादलों के पीछे भागा। और बादल सूरज को घेर कर उसे ' गुड नाईट चाचू ' कह कर अस्त होने को कहने लगे।
बस यही, दूर खड़ा मैं भी देख रहा था। सूरज बादलों के बीच कैसा सोने के आभूषण जैसा चमकता है।