जैसा की मैं कह रहा था, इंसान के पेट के इर्द गिर्द कितनी कहानियां घूमती हैं। मुझको अचरज न होगा अगर किसी दिन वैज्ञानिक यह खोज लें की हमारा ब्रह्माण्ड किसी विशालकाय जीव के उदर में पड़ा हिचकोले खा रहा है, और जिसे हम ब्रह्माण्ड का फूलना समझ रहे हैं, वह केवल उस जीव का एक दीर्घ श्वास भर हो। देखो न, हमारे सूरज चाचू हैं ही क्या? आग! और हमारे पेट में भी तो आग है, अम्ल के रूप में?
कुछ दिनों पहले खराब पेट की शिकायत होने लगी, तो वैज्ञानिकों का लिखा तकनीकी शास्त्र पढ़ने लगा, सोचा के देखूं तो सही ये माजरा क्या है। पेट के अंदर होता क्या है। जान कर पहले बड़ा आश्चर्य हुआ, फिर लगा, ठीक ही तो है - हमारे पेट में छोटे छोटे जंतुओं का भरा पूरा साम्राज्य है। एस अबव, सो बिलो, एस वीथिन, सो विदाउट (as above, so below – as within, so without) | कुछ को एंजाइम बनाने का ठेका दे रखा है, तो कुछ को विषाणुओं पर घात लगा कर ख़त्म करने का। बहुत हद तक, कुदरत ने हमारे ही पेट में आउटसोर्सिंग कर रखी है। मिलनसार तरीके से जीने के पदार्थों का लेन देन चलता रहता है। यह भी पता लगा की इनमे से बहुत से बैक्टीरिया अवसरवादी हैं, और अगर हमारा शरीर ढील दे दे तो पूरे शरीर पर कब्ज़ा जमा लें।
ऐसे ही एक दिन बैठा बैठा गाजर चबा रहा था के अचानक दांत में दर्द हो आया। उस समय तो इतना न था, पर सुबह उठा तो जीभ के छूते ही तीर सी दर्द उठती और मुझको बैठा देती। ऊपर से कमबख्त रविवार का दिन। डॉक्टर का क्लिनिक भी अगले दिन खुलेगा। बड़ी उलझन हो गयी। कभी कभार ये बच्चों की किताबें बहुत बड़ी बड़ी बातें कह जाती हैं - नारुतो (जापानी माँगा) के बोल याद आ गए - pain is inevitable, suffering is optional (दर्द अवश्यंभावी है, तड़पना इच्छाधीन है) | बस फिर क्या था, हिम्मत सनसनी सी रागों में दौड़ने लगी (कुछ ही पलों के लिए)। मैंने किताब पढ़ने की ओर ध्यान बंटाया।
थोड़ी देर में जब मेड दोपहर का खाना बनाने के लिए आई तो बड़े आराम से कहा, 'देखो, मेरे दांत में बहुत दर्द हो रहा है, मेरे लिए तरल सी खिचड़ी बना दो'। (किसी बहाने ही सही, खिचड़ी मिले तो बड़ा उल्लास होता है)। पर आज एक नया अनुभव मेरा इंतज़ार कर रहा था। खिचड़ी खानी तो थी, परंतु आधे मुंह से। सब्र का एक और इम्तिहान! पर इम्तिहान में अगर अकेले हों तो पास होने पर अव्वल ही आते हैं, आगे और पीछे दोने दिशाओं से। मैं भी अव्वल आया। पर संतुष्टि न हुई। शाम को एक मित्र आया, और गाजर का हलवा लाया गया। वह भी खाया, आधे मुंह से। हमारे यहां इसे कहते हैं कि 'रै नहीं आई'। सच में नहीं आई।
जॉन मेयर का एक गाना है 'हाफ ऑफ़ मायी हार्ट'। आज उसके बोल कुछ ज़्यादा महत्त्वपूर्ण जान पड़ते हैं। आधे मुंह से भोजन में रस नहीं आया, पूरा मुंह ज़रूरी है। तो प्रेम आधे मन से करेंगे तो क्या ख़ाक मज़ा आएगा? पेट भर कर खाना हो तो, रज कर स्वाद लेना हो तो निवाले को पूरे मुंह में भरना होगा। मेरा आधा मुंह अभी भी भूखा है। आधे प्रेम में भी क्या रखा है भला, पूरा करना होगा, वरन आधा भी छोड़ना होगा।