Sooji Halwa

(Image Credits)

हलवा

जन्माष्टमी से अगले दिन ठाकुरद्वारे पर रोट दिया जाता है | जैसे गुरुद्वारों पर लंगर होता है, कुछ वैसा | कुछ साल पहले तक रोट में हलवा बना करता था, वही स्मृति मन में बस गयी है, अब तो मालपुए बनते हैं| कल जब फ़ोन किया तो माँ ने बताया कि ठाकुरद्वारे से रोट खा कर आ रहे हैं|

पता नहीं कल में ऐसा क्या था, अचानक मेरा भी मन हुआ, हलवा खाने का | घर में माँ बनाती हैं, पर सूजी का हलवा पापा ज्यादा अच्छा बनाते हैं| पापा के परिवार की ओर से एक रिवाज़ सा है, मर्दों को हलवा बनाना खूब आता है| मेरे दादा जी आटे का हलवा खूब बनाते थे| उम्र भर गरीबी में जिए, पर कहते थे कि हलवे पर वे महीनों निर्वाह कर सकते थे | स्कूल से अवकाश होने पर पापा हमें दादाजी के घर भेजते थे, उस समय सब चचेरे भाई बहन वहां आते थे, मज़ा आता था| ऐसे मं एक बार दादाजी ने हलवा बनाया| और मैंने डट कर खाया| लड़कपन में इसका भान नहीं रहा की कितना खाना चाहिए, स्वाद स्वाद में बहुत ज्यादा खाया| मैंने ही नहीं, सभी ने रज कर लुत्फ़ उठाया था| बड़े भैया को एहसास हो गया कि कुछ ज्यादा खा लिया है, तो एहतियात बरतते हुए कमरे में राख से भरा तसला रख लिया, कि कहीं कुछ उल्टा सीधा हो गया तो, तो कुछ हल कमरे में ही हो| बात भी सही – ऐसे वक़्त पर नींद से उठाना, फिर उठते हुए उफान को मुंह में रोक कर मंजिल नीचे सीढ़ियों से उतर कर, अँधेरी रात में घर के पीछे के शौचालय तक पहुंचना – बड़ा मुश्किल का काम होता| सब सो गए| मैं निश्चिन्त हो कर सो रहा था, और मेरा भाई सचेत हो कर|

अचानक रात को करीब दो बजे मेरी जाग खुली, और मैं उस तसले में उलटी करता हुआ सबको सुनाई दिया| पर मजेदार बात तो यह थी कि उस समय मैंने अपने आप से एक बात कही, “ये निकला बे हलवा”| मेरे सो रहे भाइयों और दीदियों ने भी यह बात सुन ली| लकड़ी का तंग (मंजिल) था, तो नीचे की मंजिल में सो रही बहनों ने भी यह बात सुनी, और अँधेरी रात में सब हंस पड़े, सिवाय मेरे, जो वाक् वाक् कर हलवा राख में परोस रहा था |

हाँ तो मैं कहाँ था – की पापा के परिवार में लड़के हलवा बहुत अच्छा बनाते हैं| माँ जो हलवा बनाती हैं, वाह स्वाद भी बहुत होता है, और ज्यादा खाया भी नहीं जाता| जो पापा बनाते हैं, वाह स्वाद भी होता है, और खूब सारा खाया भी जाता है| जब पनिहाल के पास ख्वाजा जी को पूजने जाना होता, तो पापा चढ़ावे के लिए हलवा बनाते | बहरहाल, यह विद्या मेरे बड़े भाई ने पापा से दीक्षा में प्राप्त कर ली हैं, और वाह भी वैसा ही कमाल का हलवा बनाते हैं| एक मैं ही नकारा हुआ| और आज अपने इसी नाकारापन के चलते, आस होने पर भी हलवा ढूंढ रहा हूँ|

माँ से कहा कि ठाकुरद्वारे के रोट से मुझको भी हलवा खाने का मन हो आया है| माँ ने तपाक से कहा, ‘चलो शुक्र है, तुम्हारा कुछ खाने का मन तो हुआ’| फिर कहने लगी, मेड से बनवा लो| थोड़ी हिचक सी हो आई, कहा उसे नहीं आता बनाना| माँ ने कहा कि कैसी मेड है जिसे हलवा बनाना नहीं आता हो? फिर गलती मान ली, मैंने कहा, उस से कभी पुछा नहीं के आता है कि नहीं| माँ ने पुछा की घर में सूजी है क्या – कहाँ से होती, सूजी से क्या बनता है यहाँ पर? आये दिन तो मेड सब्जी और अत ख़त्म होने पर हम में से किसी को झिड़क रही होती है| माँ भी कहने लगी, ‘फिर तो कहाँ से आएगा हलवा, फ़ोन पर बना कर भेज दूं?’| और खींच लो टांग!

रात के करीब आठ बज रहे होंगे, सोचा ‘पाइरेट्स ऑफ़ दी ग्रिल’ के बुफे में आखरी बार हलवा देखा और खाया था, वहीँ चला जाऊं क्या? वक़्त का तकाज़ा किया और न जाने में ही सहूलियत समझी| खाना बना कर मेड भी चली गयी, पर हलवा रह रह कर आज जुबां गीली कर रहा था| गाजर का हलवा तो सब हलवाई रखते हैं, यह दुसरे, घरेलु हलवे क्यों नहीं रखते? किस बात के हलवाई हैं?

कुछ तो ले कर आऊंगा, यह ठान कर करीब सवा नौ बजे घर से निकला| सोचा अच्छा है, भोजन के बाद ‘ब्रिस्क वाक’ लाभप्रद होता है, एक पन्त दो काज हो जायेंगे| भूला भटका वहीँ पहुंचा, जहां हमेशा पहुँचता हूँ, यह जानते हुए भी की वहां हलवा नहीं मिलेगा – फ़ूड फारेस्ट| मन अन्दर से लात मारने लगा, संझोये हुए उद्धरण सुनाने लगा – ‘कुछ अलग पाने के लिए कुछ अलग करना पड़ता है’| थोडा सोच विचार किया, खोये का कुछ न लूँगा, बहुत हो गया, खोये के मिष्ठान खा खा कर ऊब गया हूँ| सच पूछो तो मिष्ठान खा खा कर ही ऊब गया हूँ| यह सब, थाली से अलग लगते हैं, कृत्रिम लगते हैं| शायद इसलिए की मेरी ममता हलवे पर है| पर और चारा भी क्या था? ‘करो भाई पैक, आधा किलो डोडा बर्फी, आधा किलो सेव-बादाम बर्फी|’ ‘लीजिये भैया, और कुछ?’| स्यापा इस ‘और कुछ’ का, मेरे अन्दर के कर्ण को जगा देता है, कहा, ‘चलो चार पीस रसमलाई के भी कर दो’|

घर आते आते बीच में दूध की दूकान पड़ती है, दिमाग में गणित किया की घर में एक ही लिफाफा दूध का रहा होगा, सुबह की कॉफ़ी के लिए और चाहिए, और क्या पता, आजकल इन देर रात तक पढ़ने वाले उल्लुओं को मध्य रात्रि चाय-पान का शौक है, पता चला मेरी मूछों पर हल्का हल्का दूध लगा कर बाकी खुद चट्ट कर जाएँ, और सुबह कहें कि मैंने ही तो पिया था – ज्यादा ले जाने में ही भलाई है| पहुंचे दूध की दूकान पर तो वहां नजारा आज कुछ अलग था|

दुकानदार परिवार हरयाने का है (बच्चों के पिता गुज़र चुके हैं), वहीँ के ठेठ लहजे में माँ अपने बेटे को फटकार रही है – ‘शर्म नहीं आती न तुझको बिलकुल भी, कितनी बोतल जूस पिएगा, ये बेचने के लिए हैं...’, आदि| लड़का माँ को फुसला रहा है, ‘अरे माँ सच्ची कह रहा हूँ, मैंने नहीं पी अभी, ये दिन की पड़ी हुई है, अभी ऊपर रखी है, इसलिए आपको ऐसा लग रहा है|’ लड़का दिल्ली में पला है, लग रहा है, लहजा छूट रहा है |

दृश्य रमणीय है| मैं पहुंचा तो दुसरे लड़के को इशारे से डेढ़ किलो दूध लिकालने को कहा| यहाँ माँ अब नर्म पद गयी हैं, और लड़का शिकायत कर रहा है, ‘आज पूरे दिन दुकान पर बैठाये रखा है आपने| दिन भर घूमती रहती हो, एक बार भी यहाँ की सुध नहीं ली| दिन में भी मैगी बना कर खायी है|’ चौदह या पंद्रह बरस का छोरा होगा | माँ बड़े प्यार से टांग खींचती है, ‘अब मैं दूकान और घर का धंदा एक साथ कैसे देखूं? एक काम करती हूँ, तेरा ब्याह रचा देती हूँ, फिर घर सँभालने वाली भी हो जाएगी, और तुझको सँभालने वाली भी|’ लड़के ने गर्दन को झटक कर बात को नकार दिया, और हौले से मुस्कुरा कर गल्ले से मेरे पैसों का हिसाब करने लगा|

मुझको हंसी आ गयी, और याद भी | ये माएं भी अजीब होती हैं|

कितनी ही बार मैं माँ से शिकायत करता हूँ कि यहाँ छुट्टी वाले दिन कपडे धोने पड़ते हैं, और वह कितने आराम से कह देती है, ‘तेरे लिए बहू ले आती हूँ, वह धो दिया करेगी|’ आज जन्माष्टमी का अगला दिन है, यह यशोदा और कान्हा की खींचा तानी भी खूब रही|

धत्त! सब माएं ऐसी ही तो होती हैं|

Image Credits