बचपन से ही सब कहते हैं कि मैं बहुत लड़क्का हूँ, वाणी में बिलकुल भी मधुरता नहीं है | ऊपर से निस्संकोच कुछ भी धडल्ले से कह देने वाली मेरी आदत ने न जाने मुझ को कितनी ही बार परेशानी में डाला था | उसने भी कई बार इसी बात को ले कर लताड़ा था | मैंने भी झक मार कर कह दिया, जब ‘आप-आप’ कर के बात करता था तब तुमको अजीब लगता था, पहले खुद ही मेरे ज़ुबान के घोड़े की लगाम को ढील दिलवाई और अब कहती हो कि आवाज़ में प्यार नहीं है? जब तक ‘आप-आप’ की धूनी रमता था, मजाल है के ‘आप’ शब्द गलत अंदाज़ में ज़ुबान पर आता, फिर आप से तुम हुए, तुम से तू हुए, और अब देखो, प्यार ही नज़र नहीं आता |
मियां मैं शेर हूँ, शेरो की गुर्राहट नहीं जाती,
मैं लहज़ा नरम भी कर लू, तो झिन्झालाहत नहीं जाती |
बात-बात पर लड़ने को आमादा, मैं भी, और वह भी | छोटी मोटी तकरार से तो प्यार बढ़ता है, और सच पूछो तो, उसकी टाँग खींचने में मुझे बड़ा मज़ा आता है | उसका घूरना ही इतना कातिल है, ऊपर से जब वह घूरते हुए मुह फूलती है तो बस, आह सी निकलती है, ‘हाए’ (ऐसे नहीं, हा३ए!, कुछ ऐसे, जैसे धीरे से जान निकले, निःश्वास के साथ) |
पर जितने जोर से वह लड़ती है, उतनी ही नाजुक भी है पगली | चुटकी भर में ठेस लग जाती है | कुछ और नहीं कहती, बस चली जाती है, उतरा हुआ सा मुंह ले कर | ये अच्छा हथियार है मिला है इन औरतों को, न जाहिर करना और न छुपाना, बस उठ कर चले जाना, और कमरे का दरवाजा अंदर से बंद कर देना, धम्म से | मैं कान लगा के सुनता हूँ, कि मामला कहीं संगीन तो नहीं, रो तो नहीं रही कहीं? उसको भी सब मालूम है, पर कई बार सच में रोती है |
जहाँ मैं हूँ वहाँ, आवाज़ देना जुर्म ठहरा है,
जहाँ वो हैं वहाँ तक, पांव की आहट नहीं जाती |
पर जब भी रूठती है, चाहे मजाक में या सच में, मेरे लिए बड़ी मुश्किल कर देती है | वह उदास हो तो मेरा मन भी स्वतः उदास पक्षी की तरह उड़ने को उतावला हो उठता है | कोसता है निरंतर, कि क्या ज़रूरत थी उसकी टाँग खींचने की | एक-एक कहे गए वाक्य की समीक्षा करने बैठता है, बीच-बीच में हँसता है “ये अच्छा था” सोचकर, फिर एकदम से उसका ख़याल हो आता है और माहौल पुनः गंभीर हो जाता है | अगर गलती से वह रो दे, तो उस दिन तो यहाँ भी भूख-प्यास-मजाक-जान-ध्यान सब चीज़ों की हड़ताल हो जाती है | उसे पता है यह सब, फिर भी... खैर |
कभी-कभी तो दिनों तक बात नहीं करती | न चींखती है, न बरसती है | ऐसे व्यवहार करती है मानो मेरे अस्तित्व से अंजान हो | एक ही घर में, एक ही छत के नीचे, लेकिन नहीं, मजाल है जो वह टस से मस हो जाए? गुस्सा दिलाती है, तोडती है मुझको, उसकी मूक वाणी अट्टहास करती है, व्याकुल करती है | मन करता है उसे पकड़ कर झँझोड़ दूं, के गुस्सा ही सही, कुछ तो बोलो, और वह, वह बस निर्भाव हो कर इतनी निर्ममता से दूर उठ कर चली जाती है जैसे, जैसे, पता नहीं, मेरे पास कोई उपमा नहीं है |
मोहब्बत का ये ज़ज्बा, जब खुदा की देन है भाई,
तो मेरे रास्ते से क्यूँ, ये दुनियाहत नहीं जाती |
ढीठाई के मारे मेरा भी मन पक्का हो जाता है, जब मैंने कुछ गलत नहीं किया तो माफ़ी नहीं मांगूंगा | अगर माफ़ी मांग ली हो, और क्षमा न मिली हो, तो और माफ़ी नहीं मांगूंगा | फिर उसको काम में तल्लीन देख लूं - कभी किताब पढ़ते हुए, कभी सुडोकू पर आँखें गड़ाए मुंह में पेंसिल चबाते हुए – तो सारा निश्चय ताश के महलों सा ढह जाता है | मुस्कान छूट जाती है | करीब जाने की प्रबल इच्छा होती है, उसकी गोद में सर रखने की, या उसके सर को अपनी गोद में ले उसके बालों को सहलाने की | फिर से शरारत करने की |
मैं तो बार-बार भूलने का नाटक करता हूँ कि हम में कोई लड़ाई हुई है, पर जब तक मोहतरमा का मन न हो, बात आगे कैसे बढे? कभी-कभी जब वो बेखयाली में मुझसे कुछ कह उठती है, और एकदम ध्यान आ जाने पर चोरों सी हंस देती है, दाँत छुपाए, होंठों को भींचे, सर को हल्का सा झुका कर, मेरे मुंह से निकल जाता है “पता है तुम इस बिगड़ने और रूठने वाले डिपार्टमेंट में बिलकुल मेरी माँ जैसी हो“ | अब कौन बैर ले भला, हैं ही कुछ ऐसी | बस फिर क्या, आधा-आधा रोती है, और आधा-आधा हंसती है, मेरी जान की आफत, वह |
फिर? फिर क्या? यही क्रम उसके बाद फिर शुरू होता है |
शेरों की पंक्तियाँ मुन्नवर राणा की हैं |