दीप जला जाता है
जाड़े की सुनसान रातों में,
जब ठिठुरन के मारे दुबके से कुत्ते भी,
अंजान राहगीरों पर नहीं भौंकते,
ऐसी ठंडी रातों में भी कोई मेरी चौखट पर
दीप जला जाता है |
आँखें मूंदे मैं बैठा रहता,
उजाले से, अँधेरे से, मेरा क्या काम?
यह जानते हुए भी वह वीराने में यहाँ आता है,
काली अँधेरी रातों में भी मेरी चौखट पर,
दीप जला जाता है |
दिन की नौकरी कर पुजारी,
रात का पहरा मुझे अकेले सौंप गया,
मैं ठगा सा बैठ यहीं पर देखता रह गया लेकिन,
वह आस से, न प्रार्थना के, मेरी चौखट पर,
दीप जला जाता है |
उन सपनों में जहां कोई,
किरण भी आज तक नहीं पली,
मुरझाये हुए फूल और दूर तक अँधेरी मरुभूमि,
उस कंटक वन के क्षितिज पर वह नित्य,
दीप जला जाता है |
मेरी अंधी आँखें भी,
भले प्रकाश ने देख पाएं,
उस दीपक के सूर्योदय में, तप कर उज्ज्वल होती हैं,
नए सपनों के सृजन की टीस जगा कर,
दीप जला जाता है |
न जाने क्यों कोई रोज,
मेरी अँधेरी चौखट पर, एक नया सा,
दीप, जला जाता है ||