जीवन में कुछ हादसे हमारे अस्तित्व को उथल-पुथल कर देते हैं | हर इन्सान को अपने बारे में राय रखने का हक होता है, यह राय कितनी सटीक हो, यह उस इन्सान के आत्म बोध को दर्शाती है | कुछ गिने चुने लोग ही होते हैं जिनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं होता | ऐसे लोग बिरले ही होते हैं | अधिकांश लोग खुशफहमी में जीते हैं, और खुशफ़हमी में ही मर भी जाते हैं | बड़ी-बड़ी ढींगे हांकते हुए जीवन बीत जाता है | बहुत खुश किस्मत होते हैं ऐसे लोग – क्योंकि आत्म बोध परीक्षा की घड़ी में होता है, और जब सत्य का भान होता है, तो बड़ी दुर्गति होती है, मन टूट जाता है, योद्धा परास्त हो जाते हैं | गलत - योद्धा नहीं, कागजी शेर हारते हैं | ऐसी ही एक घटना ने मेरी जीवन गंगा का प्रवाह कुछ क्षणों के लिए न्यून कर, और फिर विपरीत दिशा में कुछ ऐसा बहाया, कि अब उसके बारे में सोच कर भी सिहर उठता हूँ | राहत की बात बस इतनी है कि सब कुछ एक सपने में हो गया | मुझे कागजी शेर से, एक आदमी बना गया, कमज़ोर आदमी |
एक बहुत ही अजीब से सपने से आज मैं अचानक उठ गया | उठते ही मुंह से निकला “ऐसी परिस्थिति में भगवान दुश्मनों को भी ना डाले” |
कहाँ था, किसके साथ था, कुछ नहीं पता | एक खेमे में पहुंचा, हाईवे का फ्लाई-ओवर या कोई पार्किंग लौट रहा होगा | कुछ कहना मुश्किल है | वह किसी आरा मशीन का गोदाम भी हो सकता था, लकड़ी चीर कर, बड़े-बड़े नग एक के ऊपर एक सटा कर सूखने के लिए रखे हुए थे | जब मैं वहाँ पहुंचा, अधिकांश लोग सो रहे थे, चद्दर ओढ़ कर, ज़मीन पर, हालांकि समय दिन अथवा सायं का रहा होगा, बादलों से आच्छादित | एक चालीस वर्ष के आस पास की उम्र वाला आदमी, जिसकी हलकी तोंद थी, फोन पर बात कर रहा था | कुछ “इसमें झगड़े की क्या ज़रूरत है” कह रहा था | कभी हलके से हँसता, कभी माथे पर से पसीने के मोती पोंछता | एक अजीब सी खामोशी थी उस जगह में | दृश्य कुछ ऐसा ही था, लकड़ियाँ, लोग, नग्न खम्भे, और पुराने उतरते प्लास्टर वाली दीवारें | मैं दायें हाथ के रास्ते से वहाँ पहुंचा था, पर सीध में ही कच्ची मिट्टी से हो कर भी वहाँ आना संभव था | दूर ऊंची इमारतें थीं |
मैं ऐसे ही वहाँ घूमने लगा, और वह व्यक्ति फोन पर बात करता रहा, और टहलता रहा, पांच कदम आगे, और फिर पीछे | मैं एक गठ्ठर के पीछे आया ही था कि अचानक एक हवा सी चली, और एक गिडगिडाने की सी मार्मिक कराह आई | ‘आ आ आ आह ह:’ | मैं कभी आपको नहीं बता पाऊँगा की वह आवाज़ कैसी थी | कितनी असहायता थी उस पुकार में, कितनी विवशता? किसी पुरुष की आवाज़ थी, जिसने अचानक यम को साक्षात सामने खड़ा पाया हो और दलील भी देने लायक न रहा हूँ | मुंह से निकला तो केवल ‘अअअअअअअ’ | कभी बिजली का झटका कुछ देर के लिए लगा हो, तो जैसी आवाज़ आती है, कुछ वैसी ही थी वह, अपितु और ज्यादा संगीन, और ज्यादा लाचार | ‘अअअअअअअ’ |
डर के मारे जैसे ही पीछे मुदा तो एक व्यक्ति यकायक उन लकड़ियों के गट्ठरों से तलवार थामे निकला | काला कुर्ता पायजामा पहने उसने आतंक भरी नज़रों से मुझे देखा | उसकी तलवार उठी हुई थी, और खून सना हुआ था |
मेरे पैर सुन्न हो गए | सिर्फ पैर ही क्या, मैं जहां था, वहीँ का वहीँ खड़ा रह गया | दिमाग में ददहशत गूँज उठी | हाथ फ़ौरन जुड गए, मुह से तपाक से निकला ‘भाई मैं हिंदू हूँ’ | उसने दिशा बदल ली, और वापिस उन लकड़ी के ढेरों के बीच में जा घुसा | मेरी हिम्मत नहीं बनी कि मैं वापिस जा कर देख पाऊं | मैंने चलने की कोशिश की, पीछे दीवार थी | एक और काले कपड़े पहने हुए व्यक्ति, हाथों में तलवार लिए एक माँ को छलनी करने के लिए दौड़ा | वह बेचारी माँ अपने बच्चों को छाती से चिपकाए दया की भीख मांग रही थी |
एकदम साहस भर आया, पुकार हुई के रोक ले, हिंदू है, तुम्हारे भाई जैसा है, रोक ले, तलवार का वार पकड़ ले| फिर जान कि खुशामद का ध्यान आया | द्वंद्व छिड़ गया | उसके पास हथियार है, मैं निहत्था हूँ, नसें फूल उठीं हैं, मैं कमजोर हूँ, वह आवेश में है, मुझे भी मार देगा | मैं मर जाऊंगा | क्या करूँ, क्या करूँ, क्या हो रहा है, इसकी किसी को भी खबर क्यों नहीं लगी, कोई तो इन्हें बचाओ, ये लोग तो बेचारे सो रहे थे | बचाओ, बचाओ ! रूह सिहर उठी, न लड़ सका न मर सका | देर हो गयी | अपने से घिन्न होने लगी, मरने का विचार हो आया, नीचे का हाईवे दिखने लगा, फिर जान प्यारी लगने लगी | हाथ कांपने लगे | पूरे हालात में कान कब के सुन्न हो चुके थे, सब और मंज़र कुछ और था, हवा रुक चुकी थी, और मेरे कान बहरे हो असहाय पड़े थे | ऐसे रुआँसे मंज़र पर मेरा सपना टूट गया | न मारा गया, न मरा गया | अब और देखने को क्या रह गया था? मृतों के शव? वह मेरे सपने मुझे नहीं दिखा सकते, मेरी हकीकत में, और मेरी सृजनात्मकता में मृत्यु का अभाव है (और प्रार्थना है कि वास्तविकता में यह अभाव इस तरह से पूरा न हो)| यह सपना भी कौन से उद्गारों का मिश्रण रहा होगा, किन विषादों का मुझको आभास कराने के लिए मेरे मन ने इसकी रचना की होगी, मैं नहीं बता सकता | नींद खुली तो अपनी कायरता पर क्षोभ हुआ, घृणा हो गयी अपने आप से|
जीवन की कृपणता एक सपने ने दिखला दी | मेरे अपने बारे में जो भी विचार थे, जो भी आस थी, मेरा क्षत्रिय होने पर जो मान था, मेरे ही एक सपने ने खील-खील कर दिया | जागने पर एक बात टीस बन कर आँखों के कोनों में चुभती रही : इस बात की गारंटी है कि मैं नहीं जानता था कि वहाँ नरसंहार होने वाला है, न मुझको इस बात का भान था कि वहाँ किस समुदाय के लोग हैं | यह तो कहना और भी मुश्किल है कि वह काले कपड़ों में काल बना कौन था, फिर क्यों मेरे मुंह से निकला कि “भाई मैं हिंदू हूँ!” क्यों कुछ और नहीं निकला, मेरा दिमाग कम नहीं कर रहा था मुझको इस बात का भली भांति आभास था, मृत्यु सामने देख कर कैसे घुघ्घी बंध जाती है, इसका आभास है मुझे, पर प्राणों की भीख न मांग कर यही शब्द क्यों निकले? उस मार्मिक आवाज़ को सुन ने के पश्चात न तो मुझे मरने वालों का शोर सुनाई दिया, न मारने वालों का न कोई नारे, न हाहाकार | यदि वह मारने वाला हिंदू न होता, या उसके मारने का कारण धर्म होता ही नहीं, कुछ और होता, तो मैं क्या करता, मैं क्या कर सकता था | मैं नहीं जानता, और प्रार्थना करता हूँ कि कभी ऐसी नौबत भी न आये, किसी के जीवन में भी |
*यह सपना सच्चा है, जो मेरी बंद आँखों ने देखा | पर वास्तविक लेखन में मैं इसे सच्ची घटना कहूँ अथवा काल्पनिक, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ |