कुदरत? कुदरत हिसाब लेती है
पूरा हिसाब लेती है
अरे! ऐसे क्यों देख रहे हो?
जो है वो प्रत्यक्ष है
और जो प्रत्यक्ष नहीं है,
वह भी जानलेवा है
कहीं मां की हौली-हौली थपकियां,
भूचाल के थपेड़े बन रही हैं,
कहीं तन सुख देने वाली गर्मी,
तन सुखा रही है
कल तक जो जल और वायु प्रवाह,
देते थे उल्लास
आज वही बन कर बवंडर,
छीन रहे हैं श्वास
धरती, अग्नि, जल, आकाश,
सब वही तो हैं,
सृष्टि रचने और पालन के साधन,
और ध्वंस के भी
कुदरत? कुदरत हिसाब लेती है
प्रेम? प्रेम शायद कला है,
सृष्टि की, संरक्षण की,
मिला - मिला कर प्रेरणा में,
प्रीति फूल बनाती है
उन्हीं निर्मितियों से जिनसे
धरा करे प्रतिहार
आज उन्हीं को मिला-मिला कर
कर रही प्रहार
कुदरत? कुदरत हिसाब लेती है
पूरा हिसाब लेती है
पर कुदरत मां भी है,
क्षमा भी वैसे ही देती है
मांग लो।