पल में तोला, पल में माशा।
जानते हो आज क्या हुआ? आज बरखा मुझसे मिलने आई। गहरे कोहरे की चादर ओढ़े, खूब ज़ोर ज़ोर से गरजते बादलों के कोलाहल की आढ़ लेकर, वह मुझसे मिलने आई। घर आई होगी पहले शायद, घर पर मुझको न पाया तो दफ्तर चली आई।
अपने आप को बहुत ही चालाक समझती है। उसकी जो संगिनी है ना, जिसको लोग बिजली कह कर बुलाते हैं, उसका एक नाम चपला भी है । वो चपल है, पर मेरी बरखा सरल है, बुद्धू भी । पर संगति के रंग में रंगी है। घर पहुंच कर देखा, तो बालकनी में टंगा तौलिया हलका हलका नम सा था। घर छुप छुप कर नहीं आना पड़ता है ना - घर शायद अकेली ही आई थी, सरप्राइज देने के लिए, दबे पांव, हौले हौले। खुद को ही सरप्राइज मिल गया। हा हा हा!
पर इस बार मैंने इंतजाम कर रखा था - उसे चुपके से दफ्तर में दाखिल कर लेने का। एक बड़ी सी खिड़की है, आम तौर पर बंद रहती है। मैंने हाल ही में नरीक्षण करते हुए इस बात पर गौर किया था कि अब खुली है । खुली भी ऐसे है कि किसी को भ्रांति तक ना हो। बस, उसे आते देखा, और जा पहुंचा वहीं जहां उस से मिलन होना था ।
घड़ी पर नापूं तो मिलना बहुत कम देर के लिए ही हुआ। लेकिन वो एक गाना है ना - सदियां समा गईं इस इक पल में - कुछ कुछ वैसा था। हलकी-हलकी थपकियों से मेरा चेहरा और बांहें सहलाते हुए शिकायत करने लगी - जाओ! तुम तो याद करते नहीं हो कभी, और आती हूं तो ऐसे बर्ताव करते हो जैसे मैं कुछ हूं ही नहीं, नहीं करती तुमसे बात। मैं खिड़की थोड़ी और खोल देता हूं, थोड़ा और भीगने को।
लेकिन इस से पहले कि कोई जान पाता की आज मौसम के मिजाज को हुआ क्या है, वो अपना पल्लू छुड़ा खिलखिला कर भाग गई। और देखो तो ज़रा, क्या खुशी बिखेर कर गई है आज की सांझ में ।