एक भभकती दोपहर में,
जाने कौन सा वचन निभाने को,
कुछ तेज़ हवाएं सी बहने लगीं |
उनको आता देख सेमल ने,
अपनी बाहें खोल लीं |
जिन बीजों को सेमल ने,
प्यार दुलार से पाला था,
अपने तन का रक्त लगा कर,
हर पहर संभाला था,
उनकी आज विदाई है|
सेमल आज कुछ नर्म है,
हवाओं के दिलासे से,
अपने बीजों को,
रुई के फाहों में लिपट कर,
प्रवाह में उड़ते, जाते देखता रहा|
यह देख कर मेरी भी आस,
कुछ-कुछ बढ़ने लगी है,
दोपहरें मुझको भी तापती हैं,
सपने मेरे भी उन्नत हैं,
लेकिन बेचैनी बढ़ने लगी है|
मैं भी अब उन हवाओं की राह ताक रहा हूँ|
यकीन है हवाएं बेवफा नहीं,
जानता हूँ ये देरी बेवजह नहीं ,
लेकिन तेज़ दोपहर है, और मेरे सपनो की,
मैं ही छाँव हूँ|