बूढी हो रही है माँ
लोग उनसे अक्सर पूछते हैं, “दिन भर क्या करती हो?” माँ के पास कभी कोई जवाब नहीं था| कहती थी, बस घर के काम करती हैं, और ‘सकेरा’ करते-करते सांझ हो जाती है |
सुबह उठ कर हमारे लिए खाना बनाती, पापा के लिए खाना बनाती| पापा के दफ्तर जाने से पहले घर में या बाहर आँगन में झाड़ू नहीं लगता था | पापा के जाने के बाद भी कम से कम आधा घंटा इंतज़ार| कहती हैं, “अपशगुन होता है”|
दोपहर तक घर में रोज़ झाड़ू, डस्टिंग, फिर पोछा | गीले पोछे पर कोई भी चल पड़ता तो खीज जाती | अगर हम बाहर होते, तो कहती कि जब तक पोछा सूख न जाए, बाहर ही रहना | कमरे में होते तो कहती, बिस्तर से पैर नीचे नहीं धरना | कमाल की बात यह कि हमें भी सारे काम तभी याद आते| गीले पोछे में सूखे के छोटे-छोटे द्वीप बनने लगते, और हम कूदते फांदते निकलते| माँ फिर भी गुस्सा होतीं| हमारे पैरों के निशान से पहचान जाती कि कौन चला है|
शाम आते-आते कुत्ते के साथ सैर पर निकलना, फिर आ कर रात के खाने का बंदोबस्त | दिन में दाल तो शाम को सब्जी, दूध उबालना, आटा गूंथना, तड़का तैयार करना, और क्या कुछ| रोटियाँ बनाने से पहले पूजा करने जाना, और हमसे कहना, “चावल में सीटी आये तो गैस सिम कर देना, और पांच मिनट में बंद”, या, “दूध उबल जाए तो बंद कर देना” | हम बगल के कमरे में बैठे सब भूल जाते, थोड़ी देर में उनकी आवाज़ आती, “दूध उबल रहा है, बंद कर दो” | आज भी समझ नहीं आया, ऐसी तीव्र नाक कहाँ से आई | जब रोटी बनाने लगना तब हमें तवे से ही गर्मा-गर्म रोटियाँ परोसना, कभी दो लोग, कभी तीन, पर किसी की थाली में रोटी की देर नहीं | फिर सारे बर्तनों की सफाई, फिर रसोईघर में सोने से पहले एक बार और पोछा | राजधानी कैसे सँभालते हैं, राजनीतिज्ञों को मेरी माँ से सीखना चाहिए| दिल्ली संवर जायेगी |
याद है जब वो दिन में सिलाई करते हुए रेडियो सुना करती थी, फौजी भाइयों के लिए कार्यक्रम। कभी सिलाई की मशीन पर हमारी फटी हुई पैंट सिलते हुए, कभी कमीज़ के बटन सीते हुए, तो कभी कपड़ों को इस्त्री करते हुए| मोबाइल फ़ोन का ज़माना नहीं था, एक बड़ा सा टेप रिकॉर्डर था, फिलिप्स का – विविध-भारती दोपहरों की साथिन थी|
अब नहीं सुनती! कभी कभी तो दिन गुज़र जाता है, पर काम नहीं गुज़रते | और दसों काम जो आ गए हैं| कभी कभी कमर में भी दर्द आ जाती है| जो रसोई कभी रात नौ बजे तक फिर से चमकने लगती थी, उसमे कभी कभी उनको दस, कभी ग्यारह भी बज जाते हैं | माँ रूकती नहीं हैं| कुछ बदला भी तो नहीं है, फिर भी कुछ तो बदल गया है| माँ शायद बूढ़ी हो रही है|