बात निकलेगी तो, बड़ी दूर तलक जायेगी | अजीब से पहेली है यह ‘बात’ की बात करना | यों तो मैं कम बोलता हूँ, (वैसे यह कहना गलत होगा, पर फिलहाल मान लीजिये), पर जब बात शुरू होती है, खासकर तब जब बात तर्क और व्यक्तिगत मत की हो, मैं बहुत बोलता हूँ | बहुत बार सोचता हूँ कि क्या संयोग है, अभी कुछ दिन पहले ही तो मैंने इस बात पर आत्म-मंथन किया था | चलो, आज देखें कि और लोग इस बारे में क्या सोचते हैं | पर हर बार इस बात का भी अनुभव होता है कि जिस सूक्ष्मता से विचार मन में उठते हैं, और जिस वेग और निपुणता से मेरे मन में बैठी सभा उनको पारित अथवा ख़ारिज करती है, मेरे बोल उसके सामने फीके हैं | जो बात एक वाक्य में कही जानी चाहिए थी, उसके लिए मैं पूरे निबंध उगल देता हूँ, और फिर सोचता हूँ ‘अरे! इतना सब क्यों बोलता हूँ मैं’? संदेह भी हो उठता है कि मैंने सामने वाले को बोलने का मौका ही नहीं दिया है | थोड़ी सांत्वना मिलती है जब कोई इतना सुनने के बाद उस पर उपयुक्त प्रतिक्रिया, अथवा वितर्क देता है |

अभी पिछले हफ्ते ही ऑफिस से एक मित्र घर आया | उस समय मैं रेडियो मिर्ची पर गाने सुन रहा था और जो शरारतें रेडियो-जॉकी अपने श्रोताओं के साथ अक्सर करते हैं, जिसे वह ‘मुर्गा बनाना’ कहते हैं, वह सुन रहा था | साथ में शायद कुछ लिखने का प्रयास भी कर रहा था, या लिखना ख़त्म किया ही था | मित्र ने पुछा की मैं इतना क्यों लिखता हूँ, और कैसे | इस प्रश्न का कोई सटीक उत्तर देना थोडा कठिन है | मैं आखिर क्यों लिखता हूँ? मेरी लिखने कि वजहें बदलती रही हैं | बताने लगूं तो न जाने कितने कंकाल उभर आयेंगे |

उनसे कहा, मैं भूलने के लिए लिखता हूँ | विचारों को पन्नों पर उतार कर मैं उन्हें भूल, नई प्रवृतियों पर विचार कर पाता हूँ | इतनी सांत्वना रहती है कि वे भूले नहीं गए हैं, मेरे पास उनका एक पोथा है | फिर यह बताना भी आवश्यक लगा कि मैं हमेशा इसी लिए नहीं लिखता, कभी कभी बस लिखने के लिए लिखता हूँ, जिस से आदत न टूटे, प्रवाह न छूटे |

मित्र ने इसी बात को पकड़ कर अगला सवाल किया, “तो फिर मतलब, कोई भी लेखक ऐसे ही लिखता होगा क्या?” अब बात स्वयं से निकल कर तर्क और वस्तुज्ञान पर आने लगी थी | मैंने उत्तर दिया “यह कहना मुश्किल है कि वे किसलिए लिखते हैं, या थे, पर मेरा मानना है कि जिन्हें हम महान कलाकार कहते हैं, उनकी सभी रचनाएँ श्रेष्ठ नहीं थीं | यह बात अलग है कि बाद में, उनकी ‘ब्रांड वैल्यू’ के चलते, हमने सभी रचनाओं में कुछ न कुछ सराहने योग्य ढून्ढ ही लिया | आम आदमी और पढ़े लिखे आलोचकों में कुछ तो फर्क है न| कुछ ऐसी भी रचनाएँ होंगी जो उन्होंने केवल लेखन चक्र को धक्का लगाने के लिए बनायीं होंगी, और हम उन्हें भी प्रसाद के रूप में ग्रहण कर लेते हैं” | जैसे रहमान साहब को ही ले लीजिये – चूंकि वे अब मशहूर हो चुके हैं, और उनका संगीत ख्याति के नभ में ध्रुव तारे सा चमक रहा है, आम लोग, और कुछ अंधे अनुचारक उनकी हर नई रचना को सिर पर चढ़ा देते हैं | तुलना के लिए उन्ही का रचा, ‘पटाखा गुड्डी’ ले लीजिये, जो अल्हड़पन नूरान बहनों के गायन में था, वह रहमान साहब के बोल में (मेरे अनुसार) नहीं था, और मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ, अपनी तृष्णाओं और इन्द्रियों में बंधा हूँ | अब भले ही कुछ लोगों को हनी सिंह के गाने अश्लील और नारी को विषयाश्रित बनाने वाले लगते हैं, पर जब दिन रात वही गाने सुनने को मिलें, आप उसके बोल से हट कर थिरकने वाले संगीत का लुत्फ़ उठाये बिना न रह पायेंगे | और अभी कुछ लोग इसी लिए बुरा मान लेंगे कि मैंने रजा भोज की गंगू तेली से तुलना कर उनका अपमान किया है | तुलना करना जितना गलत है, उतना ही अनिवार्य भी है | समय बदलता रहता है, समय समय की बात है |

इस बात पर मित्र ने एक छोटी सी कहानी भी सुनाई, कहानी क्या थी, यह कभी और बताऊंगा – पर आशय था कि ‘लेखन जब होता है, तभी होता है’ | फिर उसने अपनी कही, की उसको लिखने का बहुत शौक है, ख़ासकर व्यंग्य (और मैं समझता था की उसको केवल गाना गाने का और बजाने का ही शौक होगा), पर यह विचार केवल विचार ही रह जाता है – आज तक एक ही बार लिखने का प्रयास किया था, नाकामी कि वजह से कभी फिर नहीं लिखा | उसे यह उद्धरण पढाया – लिखो, चाहे जैसा भी लिखो (टेढ़ा है पर मेरा है) | उसके लेखन की बात से फिर बात निकल पड़ी व्यंग्य, हास्य, परिहास और कटाक्ष के अंतर और समानताओं पर | रेडियो मिर्ची पर बनाये जाने वाले मुर्गों को, या हास्य-अभिनेताओं की उठ रही नई पीढ़ी को किस वर्ग में डाला जाए, इस पर चर्चा हुई |

रात हाथ से निकले जा रही थी और शाही पनीर मेरी थाली में ठंडा हो रहा था | जैसे ही पहला निवाला मुंह में डालने को हुआ, कि उस मित्र ने खाना चखने की इच्छा जताई – कहा एक पनीर मैं उसके मुंह में डाल दूं | मैंने कुछ संकोच के (एक तो पनीर, और दूसरा क्योंकि मैं झूठा नहीं खाता) ध्यान से उसके मुंह में वह निवाला ही रख दिया | जिस तरह उसने ग्रास खाने के लिए मुंह आगे बढाया था, मुझको हंसी आ गयी | जब बात भाषा के स्वरूपों की हो रही थी, मैंने सोचा क्यों न उदहारण से अपने मित्र को ‘विडम्बना’ से अवगत करवा दूं |

“अगर हो पाए तो, हमारे घर में पहला निवाला कुत्ते को खिलाते हैं” | वह मित्र हंस कर ही रह गया (और फिर कुछ और पनीर के टुकड़े भी खा गया) | दूसरी विडम्बना अब है, कि वह मित्र बंगाल से है, हिंदी पढनी नहीं आती |​

Satire vs Irony vs Sarcasm | Aesthetic Blasphemy