आज यों ही पूजा का दिया जलाते हुए बचपन में दिए जलाना याद आ गया | छोटी उम्र में कोई कितना जिज्ञासु या शरारती रहा होगा, इसकी कल्पना कोई उनकी करतूतों के बारे में सुन कर या देख कर अनुमानित कर सकता है | मुझे याद है कि एक बार दीदी ने दिया जला कर एक जादूगरी की थी – उलटी छत पर काले गोल-गोल घुमावदार घेरे बना-बना कर उन्होंने न जाने कितनी विचित्र कृतियाँ बनायीं थीं, न कोई स्याह और न कलम | हम सब बड़े विस्मित हुए थे |
उस समय एक ’चौकलेट’ नाम की लघु फिल्म आई थी, जिसमे एक व्यक्ति नीम्बू पानी से कागज़ पर सन्देश लिखा करता था | जब स्याह सूख जाती, तब कागज कोरा जान पड़ता, यदि उसको आंच पर रखते, तो जहां जहां स्याह फिरी होती, वहाँ-वहाँ कागज काला हो जाता, लिखाई उभर आती और रहस्य विगूढ़ हो जाता | पर छत पर किसने नीम्बू पानी उडेला होगा भला?
मैं ठहरा अनघड़ बालक, मुझे कुछ न मालूम चला और दीदी अपनी शेखी झाड़ते रहे | पर जब अपने आप दिया उठा कर मंदिर की छिछली छत पर आग घुमाई, तो जादूगरी हो गयी - एक रेखा बनती ही चली गयी | मेरे उल्लास की कोई सीमा नहीं रही, गोल-गोल-गोल-गोल मैं जादू की छड़ी सा दिया घुमाता चला गया | पर मंदिर की मर्यादा याद आ गयी, और मैं इतना भी कोई कलाकार नहीं था जो उस छोटी सी छत पर पिकासो की कृतियों जैसा कुछ बना पाता, अजंता और ऐलोरा तो भूल ही जाइए | वैसे मुझको उस समय मालूम भी न था कि कौन पिकासो और क्या ऐलोरा, पर क्या हर्ज है जनाब, आज भी कौन से तीर मार लिए हैं इस कला क्षेत्र में? खैर, कोशिश करता कि एक सुंदर सा ॐ बना पाऊँ, छोटा सा, जो मंदिर की शोभा बढ़ाये | सपने तो मेरे पूरी छतें रंगने के थे, पर न कद था और न कला | उस मंदिर की पट्टी को ही अपनी स्लेट बना कर ॐ, ॐ, ॐ बनाया करता |
उन दिनों मानो घरों की छतों की लिपाई न कर, ऐसे ही मोमबत्ती से चित्रकारी करने का कोई प्रचालन ही चल पड़ा था | मुझे अच्छी तरह याद है कैसे माँ ने मामा जी की मिठाई की दुकान की छत पर बने डिजाईन को सराहा था | फिर भी, न जाने क्यों माँ और पापा हमारा ऐसा करने पर हमेशा मुंह फुलाते थे |
ऐसा नहीं था कि मुझको दीवारें गन्दी करने का शौक था, बस एक सुंदर सा ॐ बनाने की लालसा थी | सोचा जिस दिन बन जायेगा, उसके बाद कभी नहीं करूँगा, पर कुछ न कुछ गलत हो ही जाता | कभी मुख्य आकृति ही गलत हो जाती, कभी निचला गोला ऊपर के गोले से छोटा हो जाता, कभी सूंड बदसूरत हो जाती, तो कभी चंद्र और बिंदु के बीच में भद्दी सी कालिख आ जाती | स्लेट की तरह यहाँ मिटाना संभव न था, तो मैं उस छत-रुपी कैनवस से एक छोटा सा टुकड़ा और उधार ले लेता, कि बस, यह अंतिम प्रयास है |
ऐसा करते-करते छत भर गयी, पर ॐ सिद्ध न हो पाया | पता नहीं कितने अंतिम प्रयासों की झड़ी लग गयी, दीवाली से दीवाली तक | हर दीवाली, पापा और माँ घर भर में सफेदी करवाते | साल भर रोष से कहते कि चूना करवाने में कितना खर्च आता है और इन जले के निशानों को मिटाने में कितनी मशक्कत लगती है, यह तभी जान पाओगे जब खुद खर्चा करना पड़ेगा |
अब देखो, छत पर टंगे पंखे साफ़ करने में ही कितना आलस लगता है | एक मित्र ने पुछा कि ‘भाई एक बात बताओ, ये पंखे कितने दशक पहले साफ़ किए थे?’ | जवाब दिया कि गर्मियों के खत्म होने पर साफ़ किए थे, सर्दियों में पंखे चलते नहीं, तो साफ़ भी नहीं किए| वितर्क में उसने पुछा “ऊपर की और नज़र दौड़ाने पर अजीब नहीं लगता क्या?” तो झल्ला कर जवाब दिया, “भाई सुबह एक बार बिस्तर से उठते हैं, उस समय अँधेरा होता है | उसके बाद एक ही बार ऊपर देखने का समय होता है, सोने के समय, उस समय भी अँधेरा होता है तो कुछ पता नहीं चलता |” मित्र हंस कर ही रह गया |
अब कहीं सीमेंट की उतनी सी छत भी दिखाई नहीं देती | बस लकड़ी के मंदिर दिखते हैं, जो ज्योति की हलकी लौ की तपन से पक गए हैं, जलने को तैयार | भट्टी की आंच में पकी ईंटों की तरह नहीं, जो छोटे बच्चों को ओम् बनाने के लिए कैनवस बन पाएं, पर वो, जो ज़रा सी आंच पर जल उठें |