हमारे यहाँ जब कोई घर अपनी बेटी को उसके पति के घर की ओर विदा करता है, घर के सभी सदस्य दूल्हे और दुल्हन की परिक्रमा करते हैं, और उनके पैर छूते हैं, उन पर फूल बरसाते हैं | दादा, दादी, पापा, माँ, भाई, बहन, मामा, मामी, सभी सदस्य | बचपन में एक बार मैंने किसी से पुछा था की ऐसा क्यों करते हैं, इस बार की शादी में एक अजब ही प्रतीति हुई |

कन्या-दान को महा-दान माना गया है | यह प्रथा कुछ पुरानी है, इसलिए कुछ अगल बगल की जो न्यूनतम जानकारी मुझे है, वह बताये देता हूँ | विवाह के शुभ दिन पर माता पिता अंजलि में जल भर कर एक संकल्प करते हैं की बेटी के घर का अन्न तो क्या, जल भी न पियेंगे | इसी यज्ञ के नियमानुसार जब तक बेटी को विदा नहीं कर देते, अपने आप भी व्रत करते हैं | प्रथा शायद रजवाड़ों की है, जहां बेटी का ब्याह किसी दूर देश के राजा, अथवा राजकुमार से संपन्न होता था | आशा होती थी की राजा जिस प्रकार अपनी पहली पत्नी – प्रजा – के लिए कर्मनिष्ठ और प्रेमी है, वैसा ही उनकी नाजों से पली बेटी के लिए भी साबित होगा | हालांकि अब मायने बदलने लगे हैं, जैसे हिंदी में उर्दू का मिश्रण, अंग्रेजी के शब्दों का सहज ही हिंदी की बोली में मिल जाना, और साथ में लोगों का बदलता हुआ नजरिया | लड़की को अब कोई पराया धन नहीं मानता, और तो और यात्रा के साधन भी बहुत हो गए हैं | अतः अगले ही दिन लड़की के मायके से माता पिता उसकी ससुराल चले जाते हैं, संकल्प खोलने के लिए, और साथ उठाना बैठना, खाना पीने फिर से आरम्भ हो जाता है | आज बेटी और बहु, या दामाद और बेटा एक सामान माने जाते हैं – शायद हैं भी |

हाँ तो मैं कहाँ था? परिक्रमा, हाँ ! बेटी को किसी अन्य व्यक्ति के सुपुर्द करना बड़ा ही दर्द भरा होता होगा न? एक फूल सी नाज़ुक कलि, जिसे माँ ने नौ महीने अपने गर्भ में धारण किया, जिसे माता-पिता ने कितने लाड से बड़ा किया, पढ़ाया, लिखाया, सामजिक और व्यवहारिक रूप से निपुण बनाया, उनके सारे जीवन, सारे आदर्शों का जीता जागता निवेश, एक कलि जो अब फूल बन कर किसी और के आँगन को सुशोभित करने वाली है, उस दुल्हन की जब विदाई का समय आता है, तो वह उनकी बेटी ही नहीं रह जाती | वह उनकी मान, मर्यादा, या संक्षिप्त में उनकी पगड़ी बन जाती है |

वे दूल्हे के सामने मस्तक झुकाते हैं, कि वह वही राजकुमार साबित हो जिसके सपने उन्होंने अपनी बिटिया के लिए पिरोये हैं, वही पति साबित हो जिसकी परिकल्पना कर उनकी बेटी ने कितने सपने सजाये हैं | वह नतमस्तक होने का भाव, कितना दीन, कितना लाचार हो सकता है, उसे बस महसूस किया जा सकता है, शब्दों में उसकी व्याख्या करना शायद संभव न हो | निष्ठुर से निष्ठुर पत्थर भी इस दृश्य को देख कर पसीज जाए, हाँ कुछ निष्ठुर दिल होते हैं, और कुछ अनभिज्ञ लोग, जो केवल हँसते हैं, या क्योंकि रीति कहती है, इसलिए करते हैं | इस झुकने में कितना पराक्रम है, इसका अनुमान लगाना जटिल है |

और यही एक कारण नहीं है उनके झुकने का | एक और भी है, और भी वेदना पूर्ण | बेटी की डोली के साथ वे अपनी बेटी को हमेशा के लिए खो देते हैं – जिन भी अर्थों में आपको समझ में आये, उन सभी अर्थों में खो देते है | जीते जी किसी को खो देना, समझते हैं न कि कितना कठिन होता होगा? उसके ऊपर उसको अपने हाथों से किसी और के सुपुर्द करना? उस परिक्रमा में वे अपनी बेटी के पैर छू-छू कर उसके लालन पालन में हुई त्रुटियों के लिए क्षमा मांगते हैं | उसके गलती करने पर पड़ी हर मार, हर डांट आज उनके दिल और दिमाग पर हावी होती है, भले ही उन्ही सुधारों के कारण आज वह एक सशक्त नारी, प्रेमिका, वधु, और भविष्य में माँ बन पायेगी | उनको ऐसा करता देख, लड़की कैसे न रोए?

खैर, अब वक़्त बदल रहा है, लोग भी, रिश्ते भी, शादियों के स्वरुप भी, और न जाने उपहास योग्य है या क्षोभ करने योग्य, शादियों के रिश्ते की अवधियाँ भी बदलती सी प्रतीत हो रही हैं | देखते हैं, नयी सोच हमें कहाँ कहाँ ले कर जाती है, क्या क्या नए रूप दिखाती है |

Vidayi | Aesthetic Blasphemy