मृत्युंजय (उपन्यास)

शिवाजी सावंत

भारतीय ज्ञानपीठ

ISBN: 978-93-263-5061-7

शिवाजी सावंत एक पुरस्कृत मराठी नाट्यकार एवं लेखक थे | बचपन से ही नाटकों में रुचि होने के कारण उन्होंने अपना मन इसी काम में लगाया | बचपन में खेले गए महाभारत नाट्य के महारथी कर्ण द्वारा किए गए संवाद के अंश उन्हें कुछ ऐसे भा गए कि बड़े हो जाने पर भी वे शब्द उनके मन में यों गूंजते रहे जैसे कि उन्होंने कंठस्थ किए हों | जब कर्ण के शब्द उनको व्याकुल करने लगे, तब उन्होंने समझा कि कर्ण के बारे में लिखे बिना जीवन निरर्थक होगा | इस तरह ‘मृत्युंजय’ उपन्यास के निर्माण की नींव रख दी गयी और वर्षों के कठोर परिश्रम के बाद यह यज्ञ 1968 में संपन्न हुआ | सबसे पहला प्रकाशन मराठी में हुआ था, परन्तु अत्यधिक लोकप्रिय होने के कारण इसका अनुवाद 1974 में हिंदी, और उसके बाद कितनी ही अन्य भाषाओँ में हुआ | इस उल्लेखनीय उपन्यास की समीक्षा करना शायद मेरे सामर्थ्य में नहीं है, और चूंकि इसके लेखन में और मेरे पढ़ने में लगभग पैंतालीस वर्षों का अंतराल है, जो कुछ कहना था, बहुत लोग कह चुके होंगे | मेरे लिए केवल एक ही कार्य रह गया है, इस उपन्यास को पढ़ कर मेरे मन में उठने वाले उद्वेगों का उल्लेख करना |

यह कहानी है कर्ण की | दानवीर कर्ण की, महारथी कर्ण की, ज्येष्ठ कौन्तेय कर्ण की, सर्थिपुत्र कर्ण की, सूर्यपुत्र कर्ण की, अंगराज कर्ण की | कहानी अलग-अलग पात्रों के परिप्रेक्ष से बताई गयी है | अधिकतम भागों में कर्ण अपनी कहानी स्वयं ही सुना रहे हैं, क्योंकि और कोई उनकी कहानी वैसे नहीं सुना सकता जैसी उन्होंने महसूस की थी | महाभारत के दो और पात्र, कुंती और दुर्योधन, की कहानियाँ भी कर्ण की कहानी से कुछ इस तरह गुंथी हुईं हैं कि उन पात्रों को भी अपनी चुप्पी खोल अपने विचार और विवशताएं व्यक्त करनी पड़ी हैं | जहां पर कर्ण के पराक्रम का वर्णन हुआ है, वहाँ कहानी की वल्गाएँ उनके छोटे भाई शोण ने अपने हाथों में ले ली हैं | शोण की मृत्यु के उपरांत यह काम श्रीकृष्ण ने किया है | उचित भी है, कर्ण कभी भी अपने पराक्रम का बखान स्वयं न कर पाते, उदार हृदयी कर्ण की प्रकृति में बड़बोलापन नहीं था |

शिवाजी ने अलंकारों का भरपूर प्रयोग कर लेखन को सुंदर और आकर्षक बनाया है | कुछ अलंकार ऐसे हैं जो कि पाठकों को उस समय की घटना में रोमांचित करें, और कुछ ऐसे गूढ़ रूपक हैं जो आगे के कथानक में होने वाली घटनाओं के सूचक हैं | कर्ण का अधिरथ के घर बड़ा होना और कोकिला का कौओं के नीड़ में बड़ा होना, क्या यह दोनों किसी प्रकार से जुड़े हुए नहीं हैं? कर्ण का यह मानना कि भले ही कोकिला कौओं के घोंसले में ही क्यों न पली बढ़ी हो, समय आने पर वह अपनी कूक से पूरे जगत को यह बता देती है कि वह कौन है, क्या यह उनके पूरे जीवन भर के संघर्ष का ही सार नहीं है? कर्ण ने अपना पूरा जीवन अपनी पहचान ढूँढने में लगा दिया, और जब उनको अपने कुल का ज्ञान हुआ भी, उन्होंने हँसते हँसते उसका त्याग कर न केवल उच्च कोटि का स्थान प्राप्त किया, बल्कि दानवीरता के रूप में आज तक ध्रुव तारे के समान भारतीय विचारधारा को सुसज्जित कर रहे हैं |

कुंती के रथ में छह घोड़ों का प्रावधान, लेकिन पांच ही घोड़ों का जोता जाना, पृथा (कुंती का प्रथम नाम) का पेड़ से गिरे चिड़िया के छठे शावक पर स्नेह, सभी मानो सूचक हों एक ऐसे रहस्य के, जो शताब्दियाँ बीत जाने के बाद पाठकों को तो मालूम है, परन्तु कहानी के पात्र उस आने वाले रहस्य से सर्वथा अनजान हैं |

विभिन्न परिस्थितियों में कर्ण के विचार किस प्रकार बदलते हैं, इस बात को शिवाजी ने बहुत ही सुंदरता से दर्शाया है | वृषाली को पहली बार देखने पर कर्ण द्वारा “विश्वकर्मा की पहली सुखनिद्रा में छोड़ा गया निःश्वास” के रूप में वर्णन जितना सुंदर हैं, उतना ही मार्मिक वह दूसरा वर्णन है जो गृहस्त और पतिव्रता वृषाली को देख कर कर्ण के मन में उमड़ा – “स्त्री मानो समाज की पशुशाला में सामाजिक रूढियों की रस्सी से बंधी हुई कोई गाय होती है | अनेक बातें उसकी इच्छा के विपरीत होती हैं, लेकिन वह मुक्त मन से कभी उल्लेख नहीं कर पाती | मानो कोटि-कोटि दुखों को आकाश की तरह शांत रहकर चुप चाप सहन करने के लिए ही उसका जन्म होता है |”

वहीँ, स्त्री के चरित्र की कितनी ही अच्छी और बुरी बातें इस उपन्यास में सम्मिलित हैं | नारी प्रतिकूल परिस्थितिओं में भी अधिक से अधिक रचनात्मक कार्य करना जानती है | कर्ण से वृषाली ने पूरे जीवन में एक बात छिपाई थी, एक प्रश्न जो दुर्योधन की बहन दुशाला ने किया था | कर्ण का मानना था कि स्त्री जिस बात का इस प्रकार उल्लेख कर दे, ‘आपको नहीं बता सकती’, यदि उस बात को ज्यों का त्यों छोड़ दिया जाए तो वह स्वयं ही व्याकुल हो कर बता देती है | वृषाली न केवल उनके मन का यह भ्रम तोड़ने में सफल होती है, बल्कि एक आदर्श पत्नी, माता और पुत्री बन कर भी सामने आती है |

शोण की भ्रत्रिभक्ति, शकुनी की राजनीतिक चपलता, दुर्योधन की विडम्बना, अश्वाथ्थामा की मित्रता, कुंती माता का पुत्र वियोग, कर्ण की गुरुभक्ति, क्या नहीं है इस उपन्यास में | ‘अर्जुन’ में अनुजा ने कुंती के हृदय में जलन का भाव दिखाया है, यहाँ शिवाजी ने उन्हें बड़े सन्दर्भ में बाँध कर सच्ची क्षत्राणी के रूप में दर्शाया है | कुंती के जीवन में आये उतार चढ़ाव जीवन की वास्तविकता को बखूबी दर्शाते हैं | दुर्योधन की बात हुई तो याद आया, दुर्योधन ने अपने वक्तव्य में एक ऐसी ठोस बात कही है जो आज के युग में भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी की उस युग में थी | वह थी : “... भीरु मनवाले कापुरुष अपनी दुर्बलता छिपाने का लिए समय समय पर उनका (सद्गुण-दुर्गुण) निर्माण करते रहते हैं | पागल संसार इन कल्पनाओं को आदर्श मानकर हज़ारों वर्षों से उनपर आचरण करता आ रहा है | परन्तु मेरे विचार से जगत में केवल एक ही सद्गुण श्रेष्ठ है | संसार में केवल एक ही कल्पना चिरंतन होती है, शाश्वत होती है | यह संसार आज तक केवल एक ही बिंदु के आगे झुका है | वह सद्गुण है सामर्थ्य !” बात स्पष्ट है, और बहुत सीधी, परन्तु आचरण बहुत कठिन है | कभी कभी दुर्योधन पर गुस्सा आया, कभी हंसी आई, और कभी विस्मय हुआ, कि एक व्यक्ति के अन्दर क्या क्या कर जाने की क्षमता होती है | अन्य पात्र भी मानव थे, और उनका चित्रण सभी मानवीय उद्गारों से परिपूर्ण है, परन्तु दुर्योधन पर यह ध्यान इसलिए गया क्योंकि उसकी राह सबसे भिन्न थी |

इस उपन्यास को पढ़ने के बाद, और सिर्फ इसी को पढ़ने के बाद ही क्यों, इस से पहले पढ़ी ‘अर्जुन’ में भी यही प्रतीति होती है की महाभारत का एक बहुत बड़ा कारण कर्ण था | दुर्योधन चाहे कितने ही शकुनी ले आता, यदि पूरे विश्व को झुकाने का सामर्थ्य था तो केवल कर्ण में | कुंती को दिए गए वचन के अनुरूप कर्ण ने कितनी ही बार युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव को युद्ध में जीवन दान दिया | यदि वह चाहता तो युधिष्ठिर को परास्त कर युद्ध समाप्त कर सकता था (क्योंकि युधिष्ठिर के पतन के साथ अर्जुन भी युद्ध छोड़ देता), परन्तु माता को दिए गए वचन को वह संग्राम की गर्मी में भी नहीं भूला | ऐसा दान केवल ज्येष्ठ कौन्तेय ही कर सकता था | यदि युद्ध और योद्धा धर्म के दायरों में महाभारत हुई होती तो निश्चय ही कर्ण मृत्युंजय था | कर्ण के अंतिम क्षण अत्यंत मार्मिक हैं |

मैं अकसर सुनता हूँ कि आजकल लेखक महाभारत के पात्र उठा कर महाभारत को ही सुनाते हैं | यह उपन्यास उन सब लोगों के लिए बहुत ही अलग और सुंदर रचना लगेगी | सभी लेखक किसी न किसी दृष्टिकोण से लिखते हैं | कौन सही और कौन गलत, यह कहना तो बहुत ही मुश्किल है, हाँ, इतना अवश्य है कि आदर्श कभी लोग नहीं होते, उनमें बसी हुई अच्छाइयां होती हैं |

कुछ समय से में यही सोच कर फिक्रमंद हो रहा था की अब मेरे सारे विचार अंग्रेजी में ही क्यों आते हैं? जब मेरी मातृभाषा हिंदी है, तो विचारों का उद्गम हिंदी में होना चाहिए था | कहीं में हिंदी में स्वयं को व्यक्त करना भूल ही न जाऊं, इसके लिए हिंदी पढ़ना और लिखना अति आवश्यक हो चला था | सौभाग्यवश, मुझे इस उपन्यास का ख़याल हो आया, और अब टूटी फूटी, आधी गलत हिंदी लिख कर भी में हल्का अनुभव कर रहा हूँ, क्योंकि हिंदी का क्षीण होता विचार प्रवाह फिर से बढ़ने लगा है | त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ |

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