कशी का अस्सी बनारस के अस्सीघाट और अस्सी मुहल्ले से जुड़ी पांच प्रतिनिधि कहानियां हैं | कहानियों का सन्दर्भ 1990 के दशक की राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था है, परन्तु वह आज के परिपेक्ष से भी सटीक हैं |
काशी का अस्सी
काशीनाथ सिंह
राजकमल पेपरबैक्स
ISBN : 978-81-267-1146-8
काशी का अस्सी बनारस के अस्सीघाट और अस्सी मुहल्ले से जुड़ी पांच प्रतिनिधि कहानियां हैं | कहानियों का सन्दर्भ 1990 के दशक की राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था है, परन्तु वह आज के परिपेक्ष से भी सटीक हैं |
कुछ पात्र लगभग हर कहानी मैं मौजूद हो कर अपने चरित्र की छाप छोड़ते हैं | इनमे प्रधान हैं - गया सिंह, तन्नी गुरु, रामजी राय और पूरा व्याख्यान प्रत्यक्ष दर्शी की तरह सुनाते स्वयं काशीनाथ सिंह | इसी मोहल्ले की एक चाय की दूकान को धुरी बना कर सभी कहानियां उसके इर्द-गिर्द घूमती हैं |
भाषा काशी की है - न संपूर्ण हिंदी और न ही 'गन्दगी' रहित - रोज़मर्रा की सी है | "धक्के देना और धक्के खाना, जलील करना और जलील होना, गालियां देना और गालियां पाना" अस्सी की नागरिकता के मौलिक अधिकार और कर्त्तव्य बताये गए हैं | इसी हेतु लेखक पहले ही चेता देते हैं कि:
यह संस्मरण वयस्कों के लिए है, बच्चों और बूढ़ों के लिए नहीं; और उनके लिए भी नहीं जो यह नहीं जानते कि अस्सी और भाषा के बीच ननद-भौजाई और साली-बहनोई का रिश्ता है | जो भाषा में गन्दगी, गाली, अश्लीलता और जाने क्या-क्या देखते हैं और जिन्हें हमारे मुहल्ले के भाषाविद 'परम' (चूतिया का पर्याय) कहते हैं, वे भी कृपया इसे पढ़कर अपना दिल न दुखाएं |
हर कहानी समाज अथवा राजनीति के किसी पहलू पर कटाक्ष कसती है | कुछ बातें कहानी के क्रम में अथवा लेखक द्वारा दिए गए विवरण में अंतर्निहित हैं, तो कुछ बातें पात्रों की बोलचाल से सामने आती हैं | हर पार्टी पर पत्रों के माध्यम से टिपण्णी की गयी है | कौन सी पार्टी किसे टिकट दे, इसका फैसला प्रत्याशी की जेब देख कर होना, बाबरी गिरने पर रातों-रात हर मस्जिद पर लाउड-स्पीकरों का लग जाना, और सेकुलरिज्म की राजनीति जैसे कई विषयों का उल्लेख कहानियों में मिलता है | उदाहरणतः राजनीतिक गुरु हरिद्वार (व्यक्ति) से पुछा गया कि "आदर्श और सिद्धांत की राजनीति क्या होती है?"
ऐसी कोई राजनीति नहीं होती, जो ऐसी राजनीति करते हैं, वे दांत निपोरते और हाथ पसारते हुए मर जाते हैं। ... आदर्श बालपोथी की चीज़ है! वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने और पुरस्कार जीतने की | आदर्श की चिंता की होती कृष्ण ने तो अर्जुन भी मारा जाता और भीम भी! पांडव साफ़ हो गए होते! आदर्श तो है पतिव्रता का लेकिन देखो तो सम्भोग हर किसी से! कोई ऐसी देवी है जिसका सम्बन्ध पति के सिवा किसी और से न रहा हो? आदर्श उच्चतम रखो लेकिन जियो निम्नतम - यही परंपरा रही है अपनी ! ... सिद्धांत सोने का गहना है ! रोज-रोज पहनने की चीज़ नहीं! शादी-ब्याह तीज-त्यौहार में पहन लिया बस! सिद्धान्त की बात साल में एक-आध बार कर ली, कर ली; बाकी अपनी पालिटिक्स करो |
वैसे ही एक सज्जन पुरुष रामवचन ने जयललिता, हर्षद मेहता, बोफोर्स आदि के घोटालों पर टिपण्णी करते हुए एक पहेली सामने रखी :
भ्रष्टाचार लोकतंत्र के लिए ऑक्सीजन है, है कोई ऐसा राष्ट्र जहाँ लोकतंत्र हो और भ्रष्टाचार न हो? जरा नजर दौड़ाइए पूरी दुनिया पर, ये छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ क्या हैं? अलग-अलग छोटे-बड़े संस्थान, भ्रष्टाचार के प्रशिक्षण केंद्र, सिद्धान्त मुखौटे हैं जिनके पीछे ट्रेनिंग दी जाती है | आप क्या समझते हैं, जो आदमी चुनाव लड़ने में पंद्रह-बीस लाख खर्च करेगा वह विधायक या सांसद बनने पर ऐसे ही छोड़ देगा आपको? देश को? चूतिया है क्या?
समय और 'टेक्नोलॉजी' के साथ आने वाले सामाजिक संबंधों में बदलावों और भौतिक सुख सुविधाओं की लत लगने से उजड़ते सामाजिक ताने-बाने पर बिरहा रुपी कहानी सुना कर निशाना साधा गया है | समृद्धि की प्यास लगाने के पीछे 'मल्टीनेशनल' पूँजीवाद का हाथ बताते हुए कहते हैं :
खोज चलती रही और सरकार देखती रही कि
बाहर का पानी गन्दा, बोतल का पानी साफ़
बाहर की हवा मैली, डिब्बे की हवा साफ़
बाहर की धुप पस्त, अंदर की मस्त
बाहर की ठण्ड अंडबंड, भीतर की चाकचौबन्द
नदी की गंगा जहर, बोतल की पेप्सी लहर ...
शाम के समय को उन्नति के लिए सबसे खतरनाक समय बताते हुए कहा गया:
यह वही वक्त है जब बच्चे स्कूल से घर लौटते हैं और उनके लौटने का मतलब है - किचकिच | पैं - पौं | सिरदर्द | ... देखो और सोचो तो ये बच्चे नहीं, भविष्य हैं और इनके लिए एक ही रास्ता है - मल्टीनेशनल | भरो उनके दिमाग में की यह रही तुम्हारी मंजिल | पहुंचना है वहां | पाना है इसे? दुसरे पहुँचें या पाएं, उस से पहले। ... इसकी बात ही कुछ और है | आज हांगकांग, परसों न्यूयोर्क, नरसों पेरिस | ... मगर बेटा | यह गुल्ली-डंडा नहीं, जलेबी दौड़ है - तुम्हारे साथ दौड़नेवाले हज़ारों-लाखों में नहीं, करोड़ों में हैं | इसलिए दौड़ो, जान लड़ा दो | कुछ कर के दिखाओ | शाब्बाश !... और 'होमवर्क' के बोझ के नीचे चाँप दो इतना कि कें कें करने का भी मौका न मिले | ... मेरी बेटियों, जियो और लाखों बरस जियो | अगर पढ़ते पढ़ते ऊब गयी हो; स्टेनो, प्राइवेट सेक्रेटरी, रिसेप्शनिस्ट, प्रोबेशन अफसर नहीं बनना चाहती, डॉक्टर, इंजीनियर, एयर होस्टेस बनना अपने वश में नहीं तो निराश न हो, शहनाज़ हुसैन से संपर्क करो और अपने नगर में - मोहल्ले में ब्यूटी पार्लर खोल लो | या खुद को ज़रा गौर से देखो - बम्बई, दिल्ली, बंगलौर, हैदराबाद में पैदा नहीं हुईं तो क्या हुआ? किस ऐश्वर्या राय, सुष्मिता सेन या लारा दत्ता से कम हो तुम? न 'मॉडलिंग' की दुनिया कहीं गयी है, न 'फैशन शो' की कोई कमी है, न 'सीरियलों' का टोटा है, न 'म्यूजिक अलबम' की किल्लत है |
इसी तरह बीवियों और नौकरीपेशा पतियों के अंदर भरे गए मल्टीनेशनल चीज़ों के पाखंड पर बड़ी रोचक शैली में प्रकाश डाला गया है |
अपना उल्लू सीधा करने के लिए कैसे हम अपने स्वार्थ को युक्तिसंगत (rationalize) करते हैं, उस पर 'पांडे कौन कुमति तोहें लागी' में व्यंग्य किया गया है | कैसे पड़ोसी की समृद्धि से कुंठित शास्त्रीजी भी विदेशियों की आवभगत में पाखंड रचते हैं और ऐसा करने के लिए वे कैसे अपने धर्मनिपुण मन को बहलाते हैं, उस से हाल ही में पढ़ा एक ट्वीट याद आता है :
"आस्था" मूत्र तक पीने को प्रेरित करती है, लेकिन "पाखंड" दलित के हाथों साफ पानी भी नहीं पीने देता!
गया सिंह के एक उग्र वक्तव्य में आज के युवा का नशे की चपेट में आना और बनारस में विदेशियों के आने में सम्बन्ध बताया गया है |
क्या हो रहा है गलियों में, देखा है कभी? डॉलर का धन्दा ! दीनबन्धु , डॉलर अमरीका की जीभ है | वह शुरू में ऐसे ही किसी मुल्क को चाटना शुरू करता है जैसे गाय बछड़े को चाटती है - प्यार के साथ ! बाद में जब चमड़ी छिलने लगती है, खाल उधड़ने लगती है, दर्द शुरू हो जाता है, जीभ पर कांटे उभरते दिखाई पड़ने लगते हैं, जबड़े चलने की आवाज सुनाई पड़ती है तब पता चलता है कि यह जीभ गाय की नहीं, किसी और जानवर की है | ... कभी जानने की कोशिश की कि क्या हो रहा है यहां? पता है आपको कि मोहल्ले में कितने मकान खरीदे हैं इन्होंने लोकल आदमियों के नाम से? ... उन्हें जितनी बार आना-जाना हो - आएं जाएँ , जब तक रहना हो, तब तक रहें, लेकिन हम? है हमारी हैसियत एक भी बार अमेरिका जाने की? हमारा घर उनका घर है लेकिन उनका घर उन्हीं का घर है, हमारा-तुम्हारा नहीं | ... अभी क्या देख रहे हो? थोड़े दिन बाद ही ये बोलेंगे - अस्सी जर्जर हो रहा है, ढह रहा है, मर रहा है; हमें दे दो तो नया कर दें - एकदम चमाचम | कल बनारस को चमकाएंगे, परसों दिल्ली को ठीक करेंगे, नरसों पूरे देश को ही गोद ले लेंगे और झुलाएंगे-खेलाएँगे अपनी गोदी में | यह बाद में पता चलेगा की हम किसकी गोद में हैं - जसोदा मइया की कि पूतना की ?
ऐसे ही उपमाओं का प्रयोग और हाजिरजवाबी बोलचाल में पढ़ने को मिलती है - जैसे, "कई सालों से सोच रहा हूँ कि कलम उठा ही लूँ" पर जवाब "उठा भी लो, कलम है कि शिवजी का धनुष" - न केवल मनोरंजक हैं, बल्कि हमारी शैली में रची बसी देवी देवताओं की कहानियों का एक मधुर अनुस्मारक भी है | इसे पढ़ कर क्षोभ भी होता है कि ढकोसला मान कर अब की पीढ़ियां अच्छी कहानियों से भी वंछित हो रही हैं, और हैरानी भी |
विचारधाराओं के भिन्न होते हुए भी यारियां होना, वाचाल प्रवृति की चाय की दूकान पर अधिकायत, काशी के घाटों का वाद व्यवहार और हर छोटी-बड़ी बात पर बहस करने की फुर्सत - यह सब शायद अब घाटों और नुक्कड़ की दुकानों से निकल कर व्हाट्सप्प ग्रुप्स और दफ्तर की टी-ब्रेक्स में जा बसी हैं | परन्तु यह उपन्यास भीड़ और दौड़ के इस युग में हमें ठहरने का सन्देश देता है | सिमटते दायरों की और ध्यान आकृष्ट कर एक प्रयास करता है उन्हें और सिमटने से रोकने का |
कहानियां लम्बी हैं और रोज़मर्रा की ही तरह कभी सुस्त और कभी दिलचस्प सी हैं | कम से कम एक बार अस्सी घाट को अपनी नज़रों से देखने की और प्रेरित करती हैं |